अवधेश कुमार का लेख : निराधार आरोपों की सियासत
भाजपा और इसके मातृ संगठन संघ सत्ता में रहे, न रहे विचारधारा और व्यवहार पर इसकी सक्रियता तथा विरोधियों द्वारा लगातार निशाना बनाए जाने के कारण कभी चर्चा से बाहर नहीं रह सकती। पिछले कुछ समय से भाजपा की चर्चा दूसरी सरकारों को अस्थिर करने की साजिश के आरोपों के कारण भी हो रही है। भाजपा अपनी सरकार बनाने की कोशिश करेगी, यह स्वाभाविक है, किंतु उसे सफलता केवल पार्टियों या गठबंधन के आंतरिक कलह का लाभ मिला। हां, इनमें विधानसभा के अंकगणित की भी बड़ी भूमिका रही। इसके साथ हमें संपूर्ण देश के राजनीतिक वातावरण की चार प्रमुख सच्चाइयों नहीं भूलना चाहिए।;
केंद्र सहित अकेले सबसे ज्यादा राज्यों की सत्ता में होने के कारण भाजपा का लगातार चर्चा में बने रहना स्वाभाविक है। हालांकि भाजपा और इसके मातृ संगठन संघ सत्ता में रहे न रहे विचारधारा और व्यवहार पर इसकी सक्रियता तथा विरोधियों द्वारा लगातार निशाना बनाए जाने के कारण कभी चर्चा से बाहर नहीं रह सकती। पिछले कुछ समय से भाजपा की चर्चा दूसरी सरकारों को अस्थिर करने की साजिश के आरोपों के कारण भी हो रही है। इस संदर्भ में अभी हाल की तीन घटनाएं सबसे ज्यादा सुर्खियों में है। एक, दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने आरोप लगाया है कि उनके पास भाजपा से ऑफर आया था कि आप सरकार गिराकर हमारी पार्टी में आ जाइए आपके सारे केस हट जाएंगे। दो, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ गठबंधन तोड़कर राजद से हाथ मिलाने के समय यही आरोप लगाया कि उनकी पार्टी को तोड़ने और खत्म करने की कोशिशें की जा रही थी। तीसरी घटना के रूप में हमारे सामने महाराष्ट्र है जहां शिवसेना के बहुसंख्यक विधायक एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में टूटकर भाजपा के पास चले गए और आज वहां इनके गठबंधन की सरकार है। विरोधी इसे ऑपरेशन कमल या लोटस का नाम देते हैं।
भाजपा पर आरोप इन तीन घटनाओं तक ही सीमित नहीं है। तीन ऐसी प्रमुख घटनाएं भी हैं जहां चुनाव के बाद विरोधियों की सरकार बनी अवश्य पर कुछ समय बाद उनका पतन हुआ और भाजपा की सरकार गठित हुई। एक, मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव 2018 के बाद सरकार कांग्रेस की बनी थी। ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में मार्च, 2020 में 22 विधायकों ने कांग्रेस से त्यागपत्र दिया और कमलनाथ के नेतृत्व वाली सरकार का पतन हो गया तथा शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बन गई। दो, कर्नाटक में जनता दल (एस ) के एचडी कुमारस्वामी के नेतृत्व में कांग्रेस के साथ गठबंधन की सरकार गठित हुई, लेकिन 14 महीने में ही गिर गई। 20 विधायकों ने पाला बदल लिया और 13 जुलाई, 2019 को कुमारास्वामी विधानसभा में विश्वास मत हासिल नहीं कर सके। उसके बाद वीएस येदियुरप्पा के नेतृत्व में भाजपा की सरकार गठित हुई। कर्नाटक के मामले में भी तब राहुल गांधी, प्रियंका वाड्रा सहित कांग्रेस के नेताओं के बयान देखें तो उसमें भाजपा पर खरीद-फरोख्त का आरोप लगा था। उस समय भी कर्नाटक के कुछ नेताओं के विरुद्ध ईडी और आयकर विभाग की छापेमारी हुई थी। ये मामले न्यायालय में हैं। तब भी इन एजेंसियों के राजनीतिक दुरुपयोग का आरोप लगा था। प्रश्न है कि क्या वाकई भाजपा पर जो आरोप लग रहा है वही सच है?
सबसे पहले दिल्ली। क्या केवल 8 सीटें जीतने वाली पार्टी इतनी भारी संख्या में विधायकों को तोड़कर अपनी सरकार बना सकती है? सीबीआई इत्यादि केंद्रीय एजेंसियों की बदौलत अगर सत्ता गिराने और हथियाने की नीतियां हो तो देश में दूसरी किसी भी सरकार का टिके रहना असंभव हो जाएगा। आम आदमी पार्टी का आरोप यह भी है कि हर विधायक को 20-25 करोड़ रुपये का ऑफर दिया गया है। दरअसल, ईडी या सीबीआई जैसी केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई के बाद आरोपित नेता और पार्टियां यही आरोप लगा रहे हैं। उनका उद्देश्य यही साबित करना होता है कि वे बिल्कुल बेदाग और ईमानदार हैं एवं मोदी सरकार इन एजेंसियों के द्वारा दबाव डालकर उनकी सरकार गिराना चाहती है। क्या भ्रष्टाचार के आरोपों से संबंधित तथ्यों को देखने के बाद कोई विवेकशील व्यक्ति इस तरह के आरोपों को स्वीकार कर सकता है? जांच एजेंसियों के दुरुपयोग भारत में हुए हैं लेकिन सरकार गिराने के लिए सीबीआई ईडी को हथियार की तरह इस्तेमाल करने का आरोप गले उतारना संभव नहीं। मध्यप्रदेश में सोनिया गांधी ने जिस समय ज्योतिरादित्य सिंधिया की इच्छाओं को दरकिनार कर कमलनाथ के हाथों सत्ता सौंपी, उसी समय विद्रोह सुनिश्चित हो गया। राहुल गांधी ने ज्योतिराज सिंधिया को मध्यप्रदेश से निकालकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बना दिया। असंतुष्ट सिंधिया ने विद्रोह किया। इन दोनों राज्यों के बारे में भी कुछ तथ्य जानना जरूरी है। एक, मध्यप्रदेश में 2018 विधानसभा चुनाव में 230 सीटों में कांग्रेस को 114 तथा भाजपा को 109 सीटें मिली थी। यानी दोनों पार्टियों में केवल 5 सीटों का अंतर था। ऐसी स्थिति में असंतुष्टों के त्यागपत्र से सरकार परिवर्तन संभव था। कांग्रेस ने सब कुछ देखते हुए ज्योतिरादित्य सिंधिया को संभालने की कोशिश नहीं की। दो, कर्नाटक में 2018 के चुनाव में 224 विधानसभा में भाजपा ने सबसे ज्यादा 104 सीटें जीती थी। तीन, सत्तारूढ़ कांग्रेस को केवल 78 तथा जनता दल सेक्यूलर को 37 सीटें प्राप्त हुई थी। चार,चुनाव परिणाम के बाद भी येदियुरप्पा के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी थी किंतु विधानसभा में वे बहुमत साबित नहीं कर सके। पांच, कांग्रेस और जनता दल सेक्यूलर एक दूसरे के विरुद्ध चुनाव लड़े थे। भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए सेक्यूलरवाद के नाम पर इन्होंने हाथ मिलाया था और देश के सारे गैर भाजपा दल कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में इकट्ठे हुए थे। महाराष्ट्र में भी 2019 में देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में भाजपा और शिवसेना के गठबंधन को ही बहुमत मिला था। शिवसेना ने ही पाला बदलकर विरोधी कांग्रेस और भाजपा के साथ केवल उद्धव को मुख्यमंत्री बनाने के लिए गठबंधन किया। इस तरह पूरे तथ्यों को देखिए तो निष्कर्ष वही नहीं आएंगे जैसा विरोधी दल बता रहे हैं। तथ्य देखने के बाद बिहार में नीतीश कुमार के आरोपों को भी आप स्वीकार करना नहीं कर पाएंगे। विधानसभा में भाजपा के पास 77 एवं जदयू के 43 सदस्य हैं। जदयू को तोड़ने का मतलब था सरकार का पतन। पूरी पार्टी भाजपा में मिल जाती तभी नई सरकार बन सकती थी। क्या यह संभव था?
भाजपा अपनी सरकार बनाने की कोशिश करेगी यह स्वाभाविक है, किंतु उसे सफलता केवल पार्टियों या गठबंधन के आंतरिक कलह का लाभ मिला। हां, इनमें विधानसभा के अंकगणित की भी बड़ी भूमिका रही। इसके साथ हमें संपूर्ण देश के राजनीतिक वातावरण की चार प्रमुख सच्चाइयों नहीं भूलना चाहिए। एक, इस समय देश में भाजपा और उनके कुछ नेताओं को लेकर जनता में जैसा आकर्षण है वैसा दो तीन राज्यों को छोड़ दें तो किसी दल के प्रति कहीं नहीं है। दो,राज्यों से बाहर राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, योगी आदित्यनाथ, हेमंत बिस्व सरमा लोकप्रिय हैं। तीन, कुछ दूसरी पार्टियांे के अंदर कई कारणों से निराशा का माहौल है। चार, वास्तव में दूसरी पार्टियों के विधायक और मंत्रियों में भी ऐसे लोगों की संख्या बढ़ी है जो मानते हैं नीतियों के स्तर पर भाजपा की केंद्र और राज्य सरकारें व्यवस्थित सामंजस्य के साथ बेहतर काम करती है। तो निष्कर्ष यह कि जब तक राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक स्तरों की विरोधी पार्टियां अपने सिद्धांत या विचारधारा, संगठन और नेतृत्व संबंधी कमजोरियों को समझ कर इन्हें दूर नहीं करेगी भाजपा को इसका लाभ मिलता रहेगा।
(लेखक अवधेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)