प्रमोद भार्गव का लेख : नारी शक्ति का अभिनंदन

केंद्र सरकार ने गणेश चतुर्थी के दिन यह शुभ पहल करके देश की आधी आबादी का अभिनंदन किया है। लोकसभा में 27 साल से लंबित ‘नारी शक्ति वंदन विधेयक‘ नाम से महिला आरक्षण संबंधी विधेयक पेश कर दिया। कानून बनने के बाद संसद के दोनों सदनों व विधानसभाओं में महिलाओं की भागीदारी 33 प्रतिशत हो जाएगी।;

Update: 2023-09-22 08:08 GMT

केंद्र सरकार ने गणेश चतुर्थी के दिन यह शुभ पहल करके देश की आधी आबादी का अभिनंदन किया है। लोकसभा में 27 साल से लंबित ‘नारी शक्ति वंदन विधेयक‘ नाम से महिला आरक्षण संबंधी विधेयक पेश कर दिया। कानून बनने के बाद संसद के दोनों सदनों व विधानसभाओं में महिलाओं की भागीदारी 33 प्रतिशत हो जाएगी। वर्तमान स्थिति के हिसाब से लोकसभा में महिलाओं के लिए 181 और राज्य विधानसभाओं में 1374 सीटें आरक्षित हो जाएंगी। इन सीटों पर महिला प्रत्याशी ही चुनाव लड़ सकेंगी। फिलहाल इस आरक्षण की सुविधा 15 वर्ष के लिए होगी, लेकिन मांग के अनुसार इसे बढ़ाया भी जा सकता है।

भारतीय परंपरा में किसी नए भवन में स्त्री का प्रवेश शुभ माना जाता है। इसी दृष्टिकोण के चलते संसद के नए भवन में पहला पग महिलाओं के सम्मान में उठा है। केंद्र सरकार ने गणेश चतुर्थी के दिन यह शुभ पहल करके देश की आधी आबादी का अभिनंदन किया है। लोकसभा में 27 साल से लंबित ‘नारी शक्ति वंदन विधेयक‘ नाम से महिला आरक्षण संबंधी विधेयक पेश कर दिया। कानून बनने के बाद संसद के दोनों सदनों व विधानसभाओं में महिलाओं की भागीदारी 33 प्रतिशत हो जाएगी। वर्तमान स्थिति के हिसाब से लोकसभा में महिलाओं के लिए 181 और राज्य विधानसभाओं में 1374 सीटें आरक्षित हो जाएंगी। इन सीटों पर महिला प्रत्याशी ही चुनाव लड़ सकेंगी। फिलहाल इस आरक्षण की सुविधा 15 वर्ष के लिए होगी, लेकिन मांग के अनुसार इसे बढ़ाया भी जा सकता है।

इसी साल पांच राज्य विधानसभाओं के अलावा मई 2024 में लोकसभा के चुनाव भी होने हैं, इसलिए नारी सशक्ितकरण के इस उपाय को महिला मतदाताओं के ध्रुवीकरण के साधन के रूप में भी देखा जा रहा है। देश में इस समय करीब 44 करोड़ महिला मतदाता हैं। हालांकि यह विधेयक दोनों सदनों से पारित हो भी जाता है तब भी इसे नई जनगणना और नए परिसीमन के बाद 2026 से लागू करने का प्रस्ताव रखा गया है, इसलिए कालांतर में होने वाले चुनावों में इसे अमल में तो नहीं लाया जा सकेगा, लेकिन भाजपा के लिए महिला मतदाताओं को आकर्षित करने का काम यह विधेयक अवश्य कर जाएगा।

इसके कानून बनते ही ऐसे कई दोहरे चरित्र के चेहरे हाशिये पर चले जाएंगे, जो पिछड़ी और मुस्लिम महिलाओं को आरक्षण देने के प्रावधान के बहाने, गाहे-बगाहे बीते 27 साल से गतिरोध पैदा किए हुए थे। महिला आरक्षण विधेयक का मूल प्रारूप संयुक्त मोर्चा सरकार के कार्यकाल के दौरान गीता मुखर्जी ने तैयार किया था, लेकिन अक्सर इस विधेयक को लोकसभा सत्र के दौरान अंतिम दिनों में पटल पर रखा गया। इससे यह संदेह हमेशा बना रहा कि एचडी देवगौड़ा, इन्द्रकुमार गुजराल और अटलबिहारी वाजपेयी सरकारें गठबंधन के दबाव और राजनीतिक असहमतियों के चलते ठोस इच्छा शक्ति नहीं जता पाई थीं। हालांकि 9 मार्च 2010 में कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार ने जरूर इस विधेयक को राज्यसभा में पेश कर पास करा लिया था, लेकिन मनमोहन सिंह इसे लोकसभा से पारित नहीं करा पाए थे, जबकि उनके पास लोकसभा में स्पष्ट बहुमत था।

इस सरकार को अपने ही सहयोगी दलों के जबर्दस्त विरोध का सामना करना पड़ा था। सहयोगी गठबंधन के सांसदों ने पिछड़ी और मुस्लिम महिलाओं को आरक्षण देने के प्रावधान के बहाने, इस विधेयक को अटका दिया था। यहां तक कि समर्थक दलों ने कांग्रेस को समर्थन वापसी की धमकी भी दे दी थी। हालांकि प्रजातंत्र में तार्किक असहमतियां, संवैधानिक अधिकारों व मूल्यों को मजबूत करने का काम करती हैं, लेकिन असहमतियां जब मुट्ठीभर सांसदों की अतार्किक हठधर्मिता का पर्याय बन जाएं तो ये संसद की गरिमा और सदन की शक्ति को ठेंगा दिखाने वाली साबित होती हैं। उस समय विधेयक से असहमत दलों की प्रमुख मांग थी 33 फीसदी आरक्षण के कोटे में पिछड़े और मुस्लिम समुदायों की महिलाओं को विधान मंडलों में आरक्षण का प्रावधान रखा जाए, जबकि संविधान के वर्तमान स्वरूप में केवल अनुसूचित जाति और जनजाति के समुदायों को आरक्षण की सुविधा हासिल है। ऐसे में पिछड़े वर्ग की महिलाओं को लाभ कैसे संभव है? हमारे लोकतांत्रिक संविधान में धार्मिक आधार पर किसी भी क्षेत्र में आरक्षण की व्यवस्था नहीं है।

लिहाजा इस बिनाह पर मुस्लिम महिलाओं को आरक्षण की सुविधा कैसे हासिल हो सकती है? दरअसल इस कानून के वजूद में आ जाने के बाद अस्तित्व का संकट उन काडरविहीन दलों को है, जो व्यक्ति औैर जाति आधारित दल हैं। इसी कारण लालू, मुलायम और शरद यादव इस बिल के विरोध में दृढ़ता से खड़े हो गए थे। उत्तर प्रदेश और बिहार में जातीयता के बूते क्रियाशील इन यादवों की तिकड़ी का दावा रहता है कि इस अलोकतांत्रिक विधेयक के पास होने के बाद पिछड़ी व मुस्लिम महिलाओं के लिए जम्हूरियत के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो जाएंगे, जबकि इनकी वास्तविक चिंता यह नहीं है? दरअसल 33 फीसदी आरक्षण के बाद सदनों में संख्याबल की दृष्टि से भी इन दलों की ताकत घट जाएगी। यह तय है कि अल्पसंख्यकों की बेहतर नुमाइंदगी की वकालात के इनके दावे थोथे हैं। इन दलों का दोहरा चरित्र इस बात से भी जाहिर होता रहा है कि जब देश की पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं का 33 फीसदी से 50 फीसदी आरक्षण बढ़ाने का विधेयक लाया गया था तब ये सभी दल एक राय थे।

लेकिन जब लोकसभा व विधानसभा की बारी आती है तो यही दल गतिरोध पैदा करते हैं, क्योंकि यह विधेयक कानूनी स्वरूप ले लेता है तो इनके निजी राजनीतिक हित प्रभावित होंगे। इनका लोकसभा और विधानसभा में पुरुषवादी वर्चस्व का दायरा 33 फीसदी घट जाएगा। तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी ने भी मुस्लिम समुदाय को बरगलाए रखने के नजरिये से इस विधेयक का विरोध किया था। हमारे देश में विकास को आंकड़ों और व्यक्तिगत उपलब्धि को संख्या बल की दृष्टि से देखने-परखने की आदत बन गई है। इस नाते हम मानकर चल रहे हैं कि 543 सदस्यीय लोकसभा में 181 महिलाओं की आमद दर्ज होने और 28 राज्यों की कुल 4123 विधानसभा सीटों में से महिलाओं के खाते में 1374 सीटें चली जाने से देश की समूची आधी आबादी की शक्ल बदल जाएगी।

फिलहाल लोकसभा में 82 महिलाएं सांसद हैं। यह भागीदारी 15 प्रतिशत बैठती है। वहीं राज्यसभा में 29 महिला सांसद हैं, जो मात्र 12 प्रतिशत है। एक तिहाई आरक्षण लागू होने के बाद लोकसभा में महिलाओं की संख्या बढ़कर 181 और राज्यसभा में 73 हो जाएगी। 1952 में गठित पहली लोकसभा में सिर्फ 4.4 प्रतिशत यानी 489 में से महज 22 महिलाएं सांसद थीं। विधानसभाओं में महिला विधायकों की उपस्थिति केवल 9 फीसदी है। हालांकि असमानता के ये हालत पंचायती राज लागू होने और उसमें महिलाओं की 33 और फिर 50 फीसदी आरक्षण सुविधा मिलने के बावजूद कायम हैं। लेकिन लोकसभा व विधानसभाओं में एक तिहाई महिलाओं की उपस्थिति इसलिए जरूरी है, जिससे वे कारगर हस्तक्षेप कर महिला की गरिमा तो कायम करें ही देश में जो पुरुष की तुलना में स्त्री का अनुपात गड़बड़ा रहा है, उसको भी समान बनाने के उपाय तलाशें? साथ ही महिला संबंधी नीतियों को अधिक उदार व समावेशी बनाने की दृष्टि से उनकी रचनात्मक प्रतिबद्धता भी दिखाई दे। इस विधेयक के प्रारूप में तत्काल आरक्षण का प्रावधान नहीं है। गोया, विधेयक पारित हो जाने के बावजूद 2026 से 33 प्रतिशत आरक्षण की सुविधा देश की आधी आबादी को प्राप्त होगी।

प्रमोद भार्गव (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)

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