रंगोत्सव : लासानी है अवध की होली!
कई बार यह देखकर दांतों तले उंगली दबा लेते हैं कि ब्रज के बरसाना में जाकर ये रंग लट्ठमार हो जाते हैं तो अवध पहुंचकर गंगा-जमुनी। कई लोगों की मानें तो इन रंगों की गिनती ही तब तक पूरी नहीं होती, जब तक उनमें अवध की गंगा-जमुनी तहजीब की रंगत शामिल न की जाये। अवध में नवाबों द्वारा पोषित इस तहजीब का जादू है ही कुछ ऐसा कि ऊंच-नीच, धर्म-जाति और अमीरी-गरीबी वगैरह की लौह दीवारें तक होली के रंगों को अपने आर-पार होने से नहीं रोक पातीं।;
इस बहुलतावादी देश भारत में, जैसे कई दूसरे त्योहारों के, वैसे ही होली, यहां तक कि उससे जुड़ी ठिठोलियों के भी, अनेक रंग हैं। कुछ परम्परा, आस्था व भक्ति से सने हुए तो कुछ खालिस हास-परिहास, उल्लास और शोखियों के। आप चाहें तो इन्हें 'भंग के रंग और तरंग' वाले भी कह लें। शौक-ए-दीदार फरमाने वाले तो कई बार यह देखकर दांतों तले उंगली दबा लेते हैं कि ब्रज के बरसाना में जाकर ये रंग लट्ठमार हो जाते हैं तो अवध पहुंचकर गंगा-जमुनी। कई लोगों की मानें तो इन रंगों की गिनती ही तब तक पूरी नहीं होती, जब तक उनमें अवध की गंगा-जमुनी तहजीब की रंगत शामिल न की जाये।
अवध में नवाबों द्वारा पोषित इस तहजीब का जादू है ही कुछ ऐसा कि ऊंच-नीच, धर्म-जाति और अमीरी-गरीबी वगैरह की लौह दीवारें तक होली के रंगों को अपने आर-पार होने से नहीं रोक पातीें। क्या गांव-क्या शहर, क्या गली-क्या मोहल्ले और क्या चैराहे, जलती होलिकाएं और रंगे-पुते चेहरों वाले हुड़दंग मचाते होरियारे किसी को किसी भी बिना पर होली से बेगानगी बरतने का मौका नहीं देते।
अतीत में थोड़ा पीछे जाकर देखें तो अपने अनूठेपन के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध इस तहजीब की नींव अवध के तीसरे नवाब शुजाउद्दौला ने रखी थी। 19 जनवरी, 1732 को देश की राजधानी दिल्ली में जन्मे और 26 जनवरी, 1775 को अपनी राजधानी फैजाबाद में अंतिम सांस लेने वाले शुजाउद्दौला को यों तो अन्य अनेक ऐबों के लिए जाना जाता है, लेकिन उनमें एक बड़ी अच्छाई यह थी कि मजहबी संकीर्णताएं उन्हें छूती भी डरती थीं।
इसकी एक नजीर यह है कि पानीपत की तीसरी लड़ाई में उन्होंने मराठों के खिलाफ सुन्नी अफगानी सरदार अहमद शाह अब्दाली का साथ दिया था, गो कि वे खुद शिया थे। कारण यह था कि उक्त लडाई को मजहबी रंग दिया जा रहा था, जो उन्हें सख्त नापसन्द था।
1775 में शुजाउद्दौला के पुत्र आसफउद्दौला ने अवध की राजधानी फैजाबाद से लखनऊ स्थानांतरित की, तो भी इस तहजीब का दामन नहीं छोड़ा। हर होली पर वे अपने सारे दरबारियों के साथ फूलों के रंग से खेला करते थे, जिसकी परंपरा आगे चलकर आखिरी नवाब वाजिद अली शाह के काल तक मजबूत बनी रही। आसफउद्दौला की बेगम शम्सुन्निसा बेगम उर्फ दुल्हन बेगम को भी, जो दुल्हन फैजाबादी नाम से शायरी भी किया करती थीं, होली खेलने का बड़ा शौक था। प्रसंगवश, शम्सुन्निसा 1769 में फैजाबाद में आसफुद्दौला से शादी रचाकर दुल्हन बेगम बनी थीें और आसफुद्दौला की सबसे चहेती बेगम होने के कारण उनकी तूती बोलती थी। एक होली पर आसफुद्दौला शीशमहल में दौलतसराय सुल्तानी पर रंग खेल रहे थे तो होरियारों ने दुल्हन बेगम पर रंग डालने की ख्वाहिश जाहिर की। बेगम ने भी उनकी ख्वाहिश का मान रखने में कोताही नहीं की। अपनी एक कनीज के हाथों अपने उजले कपड़े बाहर भेज दिये और रंग वालों से उन पर जी भर रंग छिड़का। फिर वे रंग सने कपड़े बेगम के महल में ले जाये गये तो वे उन्हें पहनकर खूब उल्लसित हुई और दिन भर उन्हंे ही पहने घूमती रहीं।
आसफउद्दौला के बाद के नवाबों में से कई को लोग उनके होली खेलने के खास अंदाज के कारण ही जानते हैं। नवाब सआदत अली खां के जमाने में होली का यह गंगा जमुनी रंग तब और गाढ़ा हो गया, जब उन्होंने होली के लिए राजकोष से धन देने की परम्परा डाली। आखिरी नवाब वाजिद अली शाह ने होली पर कई ठुमरियां लिखी हैं। यों, वे 'ठुमरी' संगीत विधा के जन्मदाता भी माने जाते हैं। वह ठुमरी, जो अब पक्के रागों से ज्यादा प्रचलित है, उसे लोकप्रिय करने में वाजिद अली शाह का बड़ा योगदान माना जाता है। जानना दिलचस्प है कि उनको कृष्ण बनकर होली खेलने का शौक भी था।
कहा जाता है कि एक बार तो मुहर्रम का मातम भी उनको होली खेलने से नहीं रोक पाया था। जानकारों के अनुसार उनकी नवाबी के वक्त एक बार संयोग से होली और मुहर्रम एक ही दिन पड़ गए तो अंदेशा हुआ कि होली की खुशी और मुहर्रम के मातम में टकराव न हो जाये। इस अंदेशे के चलते लखनऊ के कई अंचलों में होरियारों ने मोहर्रम वालों की भावनाओं का सम्मान करते हुए होली न खेलने का फैसला किया तो वाजिद अली शाह ने उन्हें इस सदाशयता का ऐसा सिला दिया कि कुछ न पूछिये। उन्होंने कहा, 'अगर हिंदू मुसलमानों की भावनाओं का इतना सम्मान करते हैं कि उन्हें ठेस न पहुंचे, इसके लिए होली नहीं खेल रहे, तो मुसलमानों का भी फर्ज है कि वे हिंदुओं की भावनाओं का सम्मान करें।' इसके बाद उन्होंने बिना देर किये एलान करा दिया कि अवध में न सिर्फ मुहर्रम के ही दिन होली मनाई जाएगी, बल्कि नवाब खुद उसमें हिस्सा लेने पहुंचेंगे। उन्होंने इस एलान पर अमल भी किया और सबसे पहले रंग खेलकर होली की शुरुआत की। उनकी एक प्रसिद्ध ठुमरी है-मोरे कन्हैया जो आए पलट के, अबके होली मैं खेलूँगी डटके, उनके पीछे मैं चुपके से जाके, रंग दूंगी उन्हें भी लिपट के। यह सही है कि अब वक्त की मार ने उस होली के कई रंगों को बदरंग करके रख दिया है, लेकिन लखनऊ में आज भी होरियारे होली खेलते हुए मुस्लिम इलाकों से गुजरते हैं तो वे वहां उन पर इत्र छिड़का जाता और मुंह मीठा कराकर स्वागत किया जाता है। फिर तो फिजा में मुहब्बत का रंग ऐसे घुलता है कि किसी को अपना हिन्दू या मुसलमान होना याद ही नहीं रह जाता। इससे पहले वसंत पंचमी के दिन शहर के नुक्कड़ों पर होलिका दहन के लिए रेंडी के पेड़ (खंभ) गाड़े जाते और लकडि़यां जमा की जाती हैं, तो इस काम में भी गंगा-जमुनी तहजीब अंगड़ाइयां लेती ही है। शहर के कई इलाकों में इसका सारा जिम्मा मुस्लिम तबके के लोग ही उठाते हैं और जहां पूरा नहीं उठा पाते, वहां उसमें हिस्सा बंटाते हैं।