अरविंद जयतिलक का लेख : सदन की गरिमा से खिलवाड़ न हो

अभी हाल ही में राज्यसभा के 19 सदस्याें को सदन की कार्यवाही बाधित करने के आरोप में निलंबित किया जाना इस बात की ओर इंगित करता है कि संसद का उच्च सदन भी अब अपनी गरिमा खो रहा है। सदन में जिस तरह से हंगामा हुआ उससे साफ है कि सदस्यों की प्राथमिकता में उच्च सदन की प्रतिष्ठा की चिंता बिल्कुल नहीं है। अगर उपसभापति उन सदस्यों के निलंबन का निर्णय लेते हैं तो यह अनुचित नहीं है। सामाजिक मोर्चे पर संसद के कार्यों का मूल्यांकन किया जाए तो उपलब्धियां स्वागतयोग्य हैं। फिर भी अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है, लेकिन यह तभी संभव होगा जब जनप्रतिनिधि संसद की गरिमा का पालन करते हुए कसौटी पर खरा उतरेंगे।;

Update: 2022-07-29 08:11 GMT

अरविंद जयतिलक

राज्यसभा की कार्यवाही में बाधा डालने के आरोप में विपक्षी दलों के 19 सदस्यों का निलंबन रेखांकित करता है कि निम्न सदन की तरह अब उच्च सदन भी सियासत का अखाड़ा बन चुका है। जिस तरह विपक्षी दलों के सांसदों ने सदन को हंगामे के जरिये बाधित करने की कोशिश की और सभापति और उपसभापति के अनुरोध को दरकिनार किया उससे साफ है कि सदस्यों की प्राथमिकता में सकारात्मक बहस-विमर्श और उच्च सदन की प्रतिष्ठा की चिंता बिल्कुल नहीं है। इन परिस्थितियों के बीच अगर उपसभापति हंगामा कर रहे सदस्यों के निलंबन का निर्णय लेते हैं तो यह बिल्कुल ही अनुचित नहीं है। गौर करें तो सदन में इस तरह का दृश्य कोई पहली बार देखने को नहीं मिला है। याद होगा कृषि सुधार से जुड़े दो विधेयकों के पारित होने के दरम्यान विपक्षी दलों के कुछ उत्साहित सदस्यों ने इसी तरह उपसभापति के आसन तक पहुंचकर विधेयक की प्रतियां और रुल-बुक को फाड़ने की चेष्टा की। एक सभ्य लोकतांत्रिक देश के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से इस तरह के आचरण की उम्मीद नहीं की जा सकती।

2019 में स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने राज्यसभा के 250वें सत्र को संबोधित करते हुए कहा था कि संसद के उच्च सदन में चेक एंड बैलेंस का सिद्धांत अहम है। विरोध और अवरोध के बीच भेद किया जाना आवश्यक है। तब प्रधानमंत्री मोदी ने संसद सदस्यों के समक्ष कई ऐसी महत्वपूर्ण बातें कही जो संसदीय मर्यादा के लिए बेहद आवश्यक हैं। 250वें सत्र के पहले दिन राज्यसभा के सभापति एम वेकैया नायडु सदस्यों के व्यवहार को देखते हुए कहते सुने गए थे कि जहां तक लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरने का संबंध है 'सब ठीक नहीं है।' उन्होंने सदस्यों को आत्ममंथन का सुझाव दिया था। तब उम्मीद की गई थी कि सदस्यगण आत्ममंथन करेंगे और उच्च सदन की गरिमा बनी रहेगी, लेकिन जिस तरह बार-बार उच्च सदन को हंगामे के जरिये बाधित किए जाने का प्रयास हो रहा है, वह संसदीय लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है। कहना गलत नहीं होगा कि माननीय सदस्यगण विरोध और अवरोध के फर्क को महसूस करने को तैयार नहीं हैं। शायद उन्हें लग रहा है कि संसद की मर्यादा का हनन करके ही वह अपनी बात जनता तक पहुंचा पाएंगे। अगर उनकी सोच यह है तो ठीक नहीं है।

उन्हें समझना होगा कि उनकी सोच से देश रंचमात्र भी सहमत नहीं है। बेशक विपक्ष का उत्तरदायित्व है कि वह जनता व जनहित से जुड़े मुद्दे पर सरकार से सवाल पूछे, लेकिन यह तभी संभव होगा जब सदन की कार्यवाही ठीक तरीके से चलेगी। जब सदन ही हंगामे की भेंट चढ़ जाएगा तो फिर विपक्षी दलों की आवाज को कौन सुनेगा? इस तथ्य से कोई भी असहमत नहीं कि संघीय ढांचे और विविधताओं से भरे होने के बावजूद राज्यसभा में राष्ट्रीय दृष्टिकोण ओझल नहीं होना चाहिए। उस पर विमर्श बढ़ाना और जनआकांक्षाओं को निष्कर्ष तक ले जाना सत्ता और विपक्ष दोनों की जिम्मेदारी है, लेकिन जनआकांक्षाओं की पूर्ति तब होगी जब सदन व्यवस्थित रूप से चलेगा, मगर ऐसा होता नहीं दिख रहा है। सदन सिर्फ हंगामे की भेंट चढ़ रहा है। एक समय था जब उच्च सदन यानी राज्यसभा जनपक्षधरता वाले राजनीतिज्ञों व कला, साहित्य, विज्ञान व समाजसेवा क्षेत्र से जुड़े लोगों से गौरवान्वित हुआ करता था। उनका विमर्श संवैधानिक मर्यादा के दायरे में राष्ट्रहित से जुड़ा होता था। दलगत राजनीति आड़े नहीं आती थी। सदस्य दलगत भावना से ऊपर उठकर राष्ट्रीय महत्व के मसलों पर एकता का प्रदर्शन करते थे। जनता के मुद्दों पर गंभीरता से विचार करते थे, लेकिन विगत कुछ वर्षों से सदन सियासी जोर आजमाइश का अखाड़ा बनकर रह गया है। शायद बौद्धिकता, कला, साहित्य और समाजसेवा की पक्षधरता रखने वालों का स्थान बाहुबलियों और पूंजीपतियों ने ले लिया है। यह लोकतंत्र और संसद की सर्वोच्चता दोनों के लिए चिंताजनक है।

ध्यान देना होगा कि सैद्धांतिक तौर पर भले ही राज्यसभा राज्य हितों की संरक्षिका है, लेकिन व्यावहारिक तौर पर वह केवल राज्य के हितों के लिए ही कार्य नहीं करती। वह राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर भी काम करती है, किंतु निर्वाचन की रीति-नीति और भूमिका को देखते हुए अब देश में राज्यसभा की उपादेयता को लेकर ही सवाल उठने लगा है। कहा जाने लगा है कि राज्यसभा एक कीमती लिबास भर बनकर रह गई है। तमाम बुद्धिजीवियों द्वारा उसकी प्रासंगिकता को गैर-जरूरी माना जाने लगा है। गौर करें तो इसके लिए जनप्रतिनिधियों का अमर्यादित आचरण ही जिम्मेदार है। बेहतर होगा कि अब जब लोकतंत्र सत्तर साल से अधिक का हो चुका है, हमारे जनप्रतिनिधि संसद और जनता के प्रति अपनी जवाबदेही को सुनिश्चित करें। अपने सम्यक आचरण से सदन की गरिमा में वृद्धि करें। उन्हें ध्यान रखना होगा कि 13 मई 1952 को जब संसद की पहली बैठक संपन्न हुई तब पहले राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि संसद जनभावनाओं की अपेक्षा की सर्वोच्च पंचायत है। उसका समादर होना चाहिए। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने संसदीय लोकतंत्र को जनता की जवाबदेही से जोड़ते हुए कहा कि भारत की सेवा का अर्थ लाखों पीड़ित लोगों की सेवा करना है। उन्होंने संकल्प व्यक्त किया कि जब तक लोगों की आंखों में आंसू हैं और वे पीड़ित हैं तब तक हमारा काम खत्म नहीं होगा। लोकसभा के पहले अध्यक्ष गणेश वासुदेव मावलंकर ने जनता और जनप्रतिनिधियों को आगाह करते हुए कहा कि सच्चे लोकतंत्र के लिए व्यक्ति को केवल संविधान के उपबंधों अथवा विधानमंडल में कार्य संचालन हेतु बनाए गए नियमों और विनियमों के अनुपालन तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए बल्कि विधानमंडल के सदस्यों में लोकतंत्र की सच्ची भावना भी विकसित होनी चाहिए।

सवाल लाजिमी है कि क्या मौजूदा संसद सदस्य डा. राजेंद्र प्रसाद, पंडित नेहरू और मावलंकर की अपेक्षाओं की कसौटी पर खरा उतर रहे हैं? क्या माननीयों के आचरण में जनता के प्रति जवाबदेही की भावना विकसित हो पाई है? विगत दशकों में जनप्रतिनिधियों के आचरण को देखते हुए ऐसा कहना मुश्किल है। इन सत्तर सालों में संसद ने ढेर सारे उतार-चढ़ाव देखे हैं और अपनी सर्वोच्चता बनाए रखी है। बहुलतावादी भारतीय समाज में व्याप्त असमानताओं के बावजूद संसद में समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व बढ़ा है। संसद ने इन सत्तर सालों में ढेर सारे ऐसे निर्णय लिए हैं जो सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक सरोकारों के लिए मील का पत्थर साबित हुआ है। सामाजिक मोर्चे पर संसद के कार्यों का मूल्यांकन किया जाए तो उपलब्धियां स्वागतयोग्य हैं। मसलन दहेज प्रथा और अस्पृश्यता उन्मूलन जैसी सामाजिक बुराइयों पर रोक लगाकर संसद ने अपने मानवीय दृष्टिकोण को फलीभूत किया है। फिर भी इस दिशा में अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है, लेकिन यह तभी संभव होगा जब जनप्रतिनिधि संसद की गरिमा का पालन करते हुए जवाबदेही की कसौटी पर खरा उतरेंगे। 

( ये लेखक के अपने विचार हैं। )

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