West Bengal : खूनी सियासत का अंतहीन सिलसिला

बीरभूम हिंसा के बाद संवैधानिक संस्थाओं द्वारा राज्य सरकार की भूमिका पर सवाल खड़े किए जाना अपने आप में बहुत गंभीर बात है। जानना आवश्यक है कि बीरभूम जिले की रामपुरहाट में कुछ लोगों ने टीएमसी नेता भादू शेख पर हमला बोल दिया, जिसमें उसकी मृत्यु हो गई। इससे उत्तेजित लोगों ने एक दर्जन से अधिक घरों में आग लगा दी, जिसमें 8 लोग जिंदा जलकर मर गए। अगर समय रहते स्थानीय प्रशासन चेत गया होता तो इस तरह का भयावह नरसंहार नहीं होता। दुर्भाग्यपूर्ण यह कि इस हिंसक घटना पर सियासत शुरू हो गई है। सच तो यह है कि बंगाल में राजनीतिक वैमनस्यता से उपजा खूनी खेल का अंतहीन सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा।;

Update: 2022-03-26 10:28 GMT

अरविंद जयतिलक

पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले की रामपुरहाट में भड़की हिंसा में दो बच्चों समेत दस लोगों की मौत राज्य की कानून-व्यवस्था पर सवाल खड़े करती है। सच तो यह है कि बंगाल राजनीतिक हिंसा का केंद्र बन चुका है और यहां की सरकार अपने नागरिकों को सुरक्षा देने में नाकाम है। यह उचित है कि कलकत्ता उच्च न्यायालय ने इस भयावह हिंसा का स्वतः संज्ञान लिया है और बंगाल सरकार से अतिशीघ्र रिपोर्ट तलब की है। उच्च न्यायालय ने दिल्ली स्थित केंद्रीय फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला को भी तत्काल घटनास्थल से साक्ष्य जुटाने का आदेश दिया है। गौर करें तो इन संवैधानिक संस्थाओं द्वारा राज्य सरकार की भूमिका पर सवाल खड़े किए जाना अपने आप में बहुत गंभीर बात है। जानना आवश्यक है कि बीरभूम जिले की रामपुरहाट में कुछ लोगों ने टीएमसी नेता भादू शेख पर हमला बोल दिया, जिसमें उसकी मृत्यु हो गई। इससे उत्तेजित लोगों ने एक दर्जन से अधिक घरों में आग लगा दी, जिसमें 8 लोग जिंदा जलकर मर गए। अगर समय रहते स्थानीय प्रशासन चेत गया होता तो इस तरह का भयावह नरसंहार नहीं होता। दुर्भाग्यपूर्ण यह कि इस हिंसक घटना पर सियासत शुरू हो गई है। सच तो यह है कि बंगाल मंे राजनीतिक वैमनस्यता से उपजा खूनी खेल का अंतहीन सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा।

गौर करें तो पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हत्या वामदलों के शासन में ही शुरू हो गई थी, लेकिन जब 2011 में ममता बनर्जी ने वामपंथी दलों के साढ़े तीन दशक के शासन को उखाड़ फेंका और सत्ता तक पहुंची तब उम्मीद जगी कि पश्चिम बंगाल में शांति और भाईचारे के बीज प्रस्फुटित होंगे। चुनावी हिंसा का दौर खत्म होगा और लोकतंत्र को मजबूती मिलेगी। ममता ने वादा भी किया कि वे एक नई किस्म की राजनीति की शुरुआत करेंगी, लेकिन यह भ्रम शीघ्र ही टूट गया। तृणमूल सरकार ने वामदलों की तरह तुष्टिकरण के मार्ग पर चलते हुए अपने कार्यकर्ताओं को न सिर्फ हिंसक सियासत के लिए उकसाया बल्कि उनके बचाव के लिए कुतर्क गढ़ने शुरू कर दिए। नतीजा उनके कार्यकर्ताओं का हौसला बुलंद हुआ और साथ ही उन्हें पुलिस-प्रशासन का संरक्षण मिलने लगा। पिछले कुछ वर्षों में विरोधी दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं की हत्या इसका जीता जागता उदाहरण है। गौर करें तो पिछले कुछ वर्षों में राज्य में भाजपा के एक सैकड़ा से अधिक कार्यकर्ता मारे जा चुके हैं। राज्य में कानून व्यवस्था किस कदर बिगड़ चुकी है इसी से समझा जा सकता है कि गत वर्ष विधानसभा चुनाव से पहले उत्तरी दिनाजपुर की आरक्षित सीट हेमताबाद से भाजपा विधायक देबेंद्र नाथ रे की हत्या कर उनके शव को फंदे से लटका दिया गया। ममता सरकार द्वारा अपराधियों की धरपकड़ करने के बजाय इसे खुदकुशी करार दिया गया। बंगाल के मौजूदा सियासी अराजक हालात को देखते हुए अब ऐसा लगने लगा है मानो सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस अपने कार्यकर्ताओं को चुनाव जीतने और विरोधियों से निपटने के लिए किसी भी हद तक जाने की छूट दे दी है। देश के अन्य राज्यों में भी चुनाव होते हैं, लेकिन कहीं भी इस तरह की अराजकता और विपक्षी नेताओं को निशाना बनाने का दृश्य देखने को नहीं मिलता, लेकिन बंगाल में चुनाव में और उसके बाद हिंसा का माहौल स्वतः निर्मित हो जाता है इसके लिए कौन जिम्मेदार है। बंगाल के नागरिकों की मानें तो विधि-शासन में तृणमूल कांग्रेस का हस्तक्षेप ही राजनीतिक और चुनावी हिंसा के लिए जिम्मेदार है। लोगों का कहना है कि तृणमूल कार्यकर्ताओं के मन में कानून को लेकर तनिक भी भय नहीं है। इस स्थिति ने तृणमूल कांग्रेस और वामपंथी दलों के फर्क को मिटा दिया है।

गौर करें तो पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के बाद सत्ताधारी दल के कार्यकर्ताओं ने विपक्षी दलों विशेष रूप से भाजपा कार्यकताओं को खूब निशाना बनाया। राजनीतिक प्रतिद्वंदिता की यह स्थिति ठीक नहीं है। पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा की बात करें तो यह 1960-70 के दशक में ही प्रारंभ हो गया। यह दौर नक्सल आंदोलन का था। वामपंथी दलों ने चुनाव जीतने के लिए विरोधी दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं की हत्या की राजनीति अपनाई और स्थायी तौर पर इसे जीत का मंत्र बना लिया। आंकड़े बताते हैं कि पश्चिम बंगाल में 1977 से 2020 तक 30 हजार से अधिक राजनीतिक हत्याएं हो चुकी हैं। याद होगा कि सिंगूर और नंदीग्राम के आंदोलन के दौरान सत्ता नियोजित हत्या ने देश को किस तरह विचलित किया। वामदलों ने यहां तीन दशक तक शासन किया, लेकिन विकास का ढांचा तैयार करने के बजाय अपने शासन के उग्र तेवर और अराजक कार्यकर्ताओं के दम पर राज्य की अर्थव्यवस्था को मटियामेट कर दिया। उन्होंने किस तरह हिंसा का सहारा लेकर विपरीत राजनीतिक विचारधारा के लोगों का वजूद मिटाया यह किसी से छिपा नहीं है। इस विचारधारा की कोख से पैदा हुए राजनीतिक अराजकतावादियों ने साम्यवाद के भोथरे नारों को उछालकर कल-कारखानों को बंद कराया और आम आदमी के हक और अधिकार के साथ छल किया। सत्ता में बने रहने के लिए हिंसा का सहारा लेकर प्रतिष्ठित ट्रेड यूनियनों पर मजदूर वर्ग के नेतृत्व की पकड़ ढीली की और स्वयं अपनी कब्जेदारी जमा ली। गांव-गांव में वामपंथी अधिनायकवादी संगठनों को खड़ा किया और पंचायतों को अराजक कामरेडों के हाथों में सौंप दिया। गौरतलब है कि सत्ता के लिए ममता बनर्जी और वामपंथी दलों के बीच छत्तीस का आंकड़ा तब तक बना रहा जब तक कि ममता ने वामपंथी दलों के शाासन-सत्ता को उखाड़ नहीं फेंका। आज की तारीख में ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी ने भी वामपंथी दलों के चरित्र को अपना लिया है, लेकिन उसका दुश्मन नंबर एक वामपंथी नहीं बल्कि भाजपा है। उसका कारण यह है कि बंगाल में वामदलों का शीराजा बिखर चुका है। उनका स्थान भाजपा ने ले लिया है।

बंगाल की भूमि पर भाजपा के उभार ने ममता को डरा दिया है। इस खौफ में वह न सिर्फ भाजपा के खिलाफ आग उगल रही हैं, बल्कि राज्यपाल पर भी निशाना साध रही हैं। याद होगा गत वर्ष पहले उन्होंने राज्य के उत्तरी चौबीस परगना में फेसबुक से फैले तनाव के लिए जिम्मेदार गुनाहगारों पर कार्रवाई करने से बचने की कोशिश में राज्यपाल केसरी नाथ त्रिपाठी को ही निशाने पर ले लिया। तब वे कहती सुनी गई थी कि टेलीफोन पर बातचीत के दौरान राज्यपाल उनसे ऐसे बर्ताव कर रहे थे मानों वे भाजपा के ब्लॉक प्रमुख हों। उनके एक अन्य नेता डेरेक ओ ब्रायन ने तो यहां तक कह डाला कि पश्चिम बंगाल में राजभवन आरएसएस की शाखा में तब्दील हो चुका है। सच कहें तो इस तरह का असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक बयान रेखांकित करता है कि राज्य में एक निर्वाचित लोकतांत्रिक सरकार नहीं, बल्कि निरंकुश सोच वाली सरकार है। ऐसा नहीं होना चाहिए। - (ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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