Devshayani Ekadashi 2020: देवशयनी एकादशी महत्व और कथा
आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को एकादशी को देवशयनी एकादशी कहा जाता है। इसी मास से चतुरमास का आरंभ माना जाता है। देवशयनी एकादशी को हरिसैनी एकादशी और वंदना एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। सभी उपवासों में इस व्रत को श्रेष्ठ बताया गया है। देवशयनी एकादशी के बारे में पुराणों में विस्तार पूर्वक वर्णन मिलता है।;
Devshayani Ekadashi 2020: आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को एकादशी को देवशयनी एकादशी कहा जाता है। इसी मास से चतुरमास का आरंभ माना जाता है। देवशयनी एकादशी को हरिसैनी एकादशी और वंदना एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। सभी उपवासों में इस व्रत को श्रेष्ठ बताया गया है। देवशयनी एकादशी के बारे में पुराणों में विस्तार पूर्वक वर्णन मिलता है। जिनके अनुसार इस दिन से भगवान चार माह की अवधि तक पातललोक में निवास करते हैं। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी के श्रीहरि उस लोक के लिए गमन करते हैं और उसके पश्चात चार माह के अंतराल के बाद सूर्य के तुला राशि में प्रवेश करने पर श्रीहरि का शयन समाप्त होता है। इस दिन को देव उठानी एकादशी कहते हैं। इन चार महीनों में श्री हरि सीर सागर की अंनत शईया पर शयन करते हैं। इसलिए इन चार माह की अवधि में कोई भी धार्मिक कार्य नहीं किया जाता है।
देवशयनी एकादशी महत्व
जो भी भक्ति देवशयनी एकादशी का व्रत सच्चे मन से रखता है उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है और सभी पापों का नाश हो जाता है मृत्यु के बाद उसे स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है और मान्यता के अनुसार देवशयनी एकादशी की कथा पढ़ने और सुनने से सस्त्रगौदान के बराबर फल प्राप्त होता है। इस व्रत में भगवान विष्णु और पीपल के वृक्ष का पूजन का विशेष महत्व शास्त्रों में बताया गया है।
देवशयनी एकादशी व्रत कथा
सूर्यवंश में एक अत्यंत चक्रवर्ती और सत्यवादी और प्रभावशाली मानदाता नामक राजा उत्पन्न हुए। वे अपनी प्रजा का पालन अपने पुत्र के समान करते थे और उन्होनें बहुत दिन तक राज्य किया था। किसी कारणवश पूर्वकर्म के कारण उनके राज्य में जल वृष्टी नहीं हुई। जिसके कारण उनकी प्रजा अत्यंत कष्ट को प्राप्त हुई। कुछ काल के बाद सुधा से व्याकुल प्रजा जन आपस में सम्बती करके राजा के पास और हाथ जोड़कर और उन्होनें कहा कि हे महाराज संपूर्ण सृष्टि का मूल कारण वर्षा के न होने से आपकी सारी प्रजा सुधा से व्याकुल होकर तड़प रही है। आप ऐसा कोई उपाय करिए जिससे सारी प्रजा कष्ठ निवृत हो जाए। प्रजा के दीन वचनों को सुनकर राजा ने कहा कि आप लोग सत्य कह रहे हैं। अन्न उत्पन्न होने का मूल कारण वर्षा ही है। जिसके न होने पर आप लोगों को इस प्रकार कष्ट उठाना पड़ रहा है। यह दोष बिना राजा के उत्पन्न नहीं होता, लेकिन मैने बहुत विचार करके देखा कि मेरी किस गलती से आप लोगों को कष्ट सहना पड़ रहा है। लेकिन मेरी समझ में कोई गलती नहीं आ रही है। तब भी मै इस कष्ट के निवारण हेतु प्रयत्न करता हूं। इस प्रकार प्रजा को समझा कर राजा ने प्रेमपूर्वक पूजन किया और कुछ लोगों को लेकर वन के लिए चले गए और वहां पर राजा ब्रह्मऋषियों के आश्रम में घूमने लगे। एक दिन घूमते घूमते ब्रह्मपुत्र और अत्यंत प्रतापी महर्षि के आश्रम पहुंच कर राजा ने अपने वाहन का त्याग कर महर्षि के निकट गए और महिर्षि को प्रणाम किया। महर्षि ने राजा को आशीर्वाद देकर कुशल मंगल किया और आने का कारण पूछा। तब राजा ने अपने आने का कारण बताया और कहा कि मै धर्मपूर्वक अपनी प्रजा का पालन पुत्र की तरह करता था लेकिन मुझे मालूम नहीं है मेरे किस पूर्व कर्म के कारण मेरे राज्य में तीन वर्ष से बराबर वर्षा नहीं हो रही है, जिससे मेरी प्रजा अत्यंत कष्ट को भोग रही है। यह पूछने और अपने प्रजा के निमत्य से छूड़ाने के लिए आपके पास आया है। राजा की इस कष्टपूर्वक बात को सुनकर महर्षि ने कहा कि यह युग सर्वयुगों में श्रेष्ठ है। इस में तपस्या धर्मकारी बाह्मण ही कर सकते हैं, अन्य जाति नहीं कर सकती। इस समय आपके राज्य में एक शूद्र तपस्या में कठिबद्ध है। इसी दोष के कारण तुम्हारे राज्य में बर्षा नहीं हो रही है। अत अपने राज्य और प्रजा के कल्याण के लिए शूद्र तपस्वी का वध कर दो। राजा ने कहा कि हे मुनि जी इस प्रकार निर्अपराध तपस्वी को मारने में असमर्थ हूं आप कोई दूसरी युक्ति बताइए, जिससे मेरे राज्य का कष्ट मिट जाए। तब मुनि ने कहा कि यह बात है तो आषाढ़ मास की पद्मा नामक एकादशी का व्रत करो। यह व्रत अत्यंत महात्मशाली है और इसे करने से तुम्हारे राज्य के सारे कष्ट दूर हो जाएगें। तुम इस व्रत को अपनी प्रजा के साथ प्रेमपूर्वक करों। इस प्रकार मुनि की आज्ञा को सुनकर राजा अपने घर चला आया और प्रजा सहित आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की पद्मा नामक एकादशी का व्रत प्रेमपूर्वक करने लगा। इस व्रत के प्रभाव से राजा के राज्य में उत्तम वर्षा हुई और पृथ्वी जल से परिपूर्ण हो गई। भगवान की कृपा से प्रजा कष्ट मुक्त हो गई। इसलिए इस व्रत को सभी मनुष्यों को करना चाहिए। है। यह व्रत मुक्त को प्रदान करने वाला और अत्यंत ही पून्य फल को देने वाला है।