Happy Marriage Life : गृहस्थ जीवन का आनन्द स्त्री अधिक लेती है या पुरुष, जानें सुखी वैवाहिक जीवन की पौराणिक कथा

Happy Marriage Life : हिन्दू धर्म में विवाह बंधन अत्यंत पवित्र और धार्मिक कृत्य माना गया है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में चार आश्रमों का उल्लेख किया गया है। परन्तु उन सभी आश्रमों में गृहस्थ आश्रम को सर्वश्रेष्ठ का दर्जा दिया गया है। क्योंकि इस काल में दो पवित्र आत्माओं को परस्पर सामंजस्य बनाए रखना होता है। उन्हें हर पल उत्तरदायित्व, कठिनाईयां और सांसारिक संघर्षों में भाग लेना होता है। परन्तु ये सब बहुत ही आनन्द दायक होता है। और इसे ही धर्म माना गया है।;

Update: 2021-02-01 04:36 GMT

Happy Marriage Life : हिन्दू धर्म में विवाह बंधन अत्यंत पवित्र और धार्मिक कृत्य माना गया है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में चार आश्रमों का उल्लेख किया गया है। परन्तु उन सभी आश्रमों में गृहस्थ आश्रम को सर्वश्रेष्ठ का दर्जा दिया गया है। क्योंकि इस काल में दो पवित्र आत्माओं को परस्पर सामंजस्य बनाए रखना होता है। उन्हें हर पल उत्तरदायित्व, कठिनाईयां और सांसारिक संघर्षों में भाग लेना होता है। परन्तु ये सब बहुत ही आनन्द दायक होता है। और इसे ही धर्म माना गया है। लेकिन अब प्रश्न ये उठता है कि स्त्री तथा पुरुषों में गृहस्थ जीवन का ज्यादा सुख किसे मिलता होगा। वैसे देखा जाए तो इसके बारे में लोगों के अलग-अलग मत हो सकते हैं। किसी के विचार स्त्रियां ज्यादा सुखी जीवन जीती हैं वहीं कुछ के विचार में पुरुषों को सुखी माना गया है। परन्तु महाभारत में भी यही प्रश्न युधिष्ठिर द्वारा भीष्म पितामह से पूछा गया था। जिसके उत्तर में उन्होंने एक कथा कही थी। तो आइए जानते हैं सुखी वैवाहिक जीवन के बारे में भीष्म पितामह द्वारा कही गई कथा के बारे में।

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सुखी वैवाहिक जीवन की पौराणिक कथा (Happy Marriage Life Story)

प्राचीन काल में भंगस्वाना नाम के एक राजा हुआ करते थे। वे बहुत ही न्यायप्रिय और यशस्वी थे लेकिन उन्हें एक दु:ख था। उन्हें कोई संतान नहीं थी। जोकि उनके बाद उनकी प्रजा की देखभाल कर सके। बस इसी चिन्ता में वे दिन-प्रतिदिन डूबे रहते थे।


ऐसे ही एक दिन उनके महल में एक पहुंचे हुए सन्यासी पधारे। वे सन्यासी उन्हें पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ की सलाह देते हैं। इसलिए मुनिवर के कहे अनुसार राजा महल में एक भव्य यज्ञ के अनुष्ठान का आयोजन करवाते हैं। जिसके फलस्वरूप उन्हें कई पुत्र रत्नों की प्राप्ति होती है। परन्तु इससे एक बाधा भी उत्पन्न हो जाती है क्योंकि यह यज्ञ केवल अग्निदेव को ही समर्पित था। इसीलिए इससे केवल उन्हीं का सम्मान हुआ था। इससे देवराज इन्द्र काफी क्रोधित हो जाते हैं। और वे मन ही मन राजा भंगस्वाना को दंड देने की ठान लेते हैं। वे कई बार प्रयास करते हैं लेकिन उन्हें बदला लेने का कोई उचित अवसर नहीं मिलता है। क्योंकि भंगस्वाना इतने अच्छे राजा थे कि वे कोई गलती ही नहीं करते हैं।


परन्तु एक दिन राजा शिकार पर निकलते हैं बस तभी देवराज इन्द्र को बदला लेने का मौका मिल जाता है। और वे अवसर को उचित जानकर राजा को सम्मोहित कर देते हैं। इसके प्रभाव से राजा जंगल में इधर-उधर भटकने लगे। उन्हें ना तो खुद की सुध होती है और ना ही दिशाएं समझ आती हैं। तभी अचानक से उन्हें एक मायावी झील दिखाई देती है। इन्द्र के झलावे से अनजान राजा उस झील में प्रवेश कर जाते हैं। जिससे कि उनका रूपान्तरण हो जाता है। और देखते ही देखते वे एक स्त्री के रूप में बदल जाते हैं।


जब राजा खुद को देखते हैं तो वे शर्म के बोझ से दब जाते हैं। उन्हें कुछ समझ में नहीं आता है। और वे जोर-जोर से विलाप करने लगते हैं। वे सोचते हैं कि वे अब राज्य में कैसे प्रवेश करें। उनके पुत्रों और रानियों का क्या होगा। निश्चित तौर पर अब उनका राज्यपाठ जाने वाला था। और उनकी प्रजा भी अनाथ होने वाली थी। और इस तरह विलाप करते-करते वे अपने राज्य में प्रवेश कर गए। तत्पश्चात वे अपनी रानियों, पुत्रों और मंत्रियों को सारा घटनाक्रम बताते हैं। और अंत में वे अपना सारा राजपाठ अपने विश्वासपात्र मंत्रियों और पुत्रों को सौंप कर सन्यासियों की तरह जीवन जीने के लिए जंगल की ओर चल देते हैं।


निराशा से भरे होने के कारण हताशा उन पर हावी हो जाती है। और वे अपनी जीवन लीला समाप्त करने वाले ही होते हैं कि तभी उन्हें एक तपस्वी बचा लेते हैं। वे उन्हें परमात्मा से मिले इस जीवन का रहस्य समझाते हैं। और स्त्री रूपी राजा को नन्दनी नाम से संबोधित कर एक नया जीवन देते हैं। तत्पश्चात उन दोनों में परस्पर प्रेम बढ़ जाता है। और वे खुशी-खुशी अपना दांपत्य जीवन जीने लगते हैं। इसके बाद नन्दनी कई पुत्रों को जन्म देती है और इसके बाद समय यूं ही बीतता चला जाता है। और नन्दनी के पुत्र भी बड़े हो जाते हैं।


ऐसे ही एक दिन नन्दनी उन पुत्रों को अपने राज्य में ले जाती है और अपने पहले पुत्रों से मिलवाती है। वो उन्हें बताती है कि ये वो पुत्र हैं जब वो पुरुष हुआ करती थी। और ये वो पुत्र हैं जो अब वो एक स्त्री है। और अंत में वो अपने सभी पुत्रों को एक साथ मिलकर राजकाज कर प्रजा की सेवा का संकल्प दिलाकर पुन: अपने पति के पास वन में चली आती है।


परन्तु इस बात की खबर जब देवराज इन्द्र को लगती है तो वे एक बार फिर से आगबबूला हो जाते हैं। वे सोचने लगते हैं कि मैंने राजा को कष्ट देने के बजाय अब और भी ज्यादा सुखी कर दिया है। वे एक बार फिर से साधु का भेष धारण कर राजा के सुखी जीवन में क्लेश करने आ जाते हैं। और अपने छल से उन पुत्रों को आपस में लड़ा देते हैं। और एक-दूसरे की हत्या करवा देते हैं।


उधर स्वर्गलोक में जब देवगुरू बृहस्पति को इन्द्र की इस करतूत के बारे में पता चलता है तो वे उन्हें बहुत ही लज्जित करते हैं और नन्दनी से माफी मांगने के लिए कहते हैं। इतना सब होने पर इन्द्र को भी अपनी गलती का अहसास होता है। और वे राजा भंगस्वाना के सभी पुत्रों को जीवित कर देते हैं। तत्पश्चात वे नन्दनी से क्षमा याचना कर उन्हें उनका पुरुष स्वरूप प्रदान करने की बात करते हैं।


परन्तु नन्दनी उन्हें ऐसा करने से साफ मना कर देती है। इस पर इन्द्र थोड़े चिंतित हो जाते हैं। क्योंकि उन्हें लगता है कि वे अब भी उनसे नाराज हैं। परन्तु नन्दनी उन्हें विश्वास दिलाती है कि वे उनसे नाराज नहीं अपितु और भी अधिक प्रसन्न है और संतुष्ट है। क्योंकि उन्हीं की वजह से उन्होंने केवल एक ही जन्म में स्त्री तथा पुरुष दोनों रूपों में जीवन का आनन्द उठाया है। और धर्म का पालन करते हुए दांपत्य जीवन का सुख भोगा है।


परन्तु स्त्री बनकर उन्हें जिस मातृत्व सुख की प्राप्ति हुई ऐसी अद्भुत अनुभूति उन्हें तब भी नहीं हुई जब वो पहली बार पिता बने थे। अत: वे इन्द्र को इसी रूप में रहने का आग्रह करते हैं।


तत्पश्चात इन्द्र भी उनकी भावनाओं का आदर करते हुए उन्हें तथास्तु कहकर अंतर्ध्यान हो जाते हैं। और इस प्रकार से पितामह भीष्म अपनी कथा समाप्त करते हैं।


और साथ ही वे युधिष्ठिर को आश्वस्त करते हैं कि भले ही परमात्मा ने स्त्री और पुरुषों की रचना अलग-अलग रूपों में की है परन्तु सुखी जीवन जीने के लिए दोनों को एक-दूसरे के परस्पर सहयोग और सहायता की आवश्यकता होती है।  

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