पितृ पक्ष की कथा, आप भी जानें
पितृ पक्ष को श्राद्ध पक्ष भी कहा जाता है, जोकि भाद्रपद पूर्णिमा से अश्विन माह की अमावस्या तक चलता है। इन 16 दिनों के दौरान पितृों की आत्मा की शांति के लिए जो भी श्रद्धा पूर्वक अर्पित किया जाता है उसे श्राद्ध कहते हैं। श्राद्ध पक्ष में ब्राह्मण या ब्राह्मणियों को सुन्दर-सुन्दर भोजन करवाकर दक्षिणा दी जाती है। और पितृों को जल तर्पण किया जाता है। यदि किसी पुरुष का श्राद्ध हो तो ब्राह्मण को भोजन करवाकर वस्त्र और दक्षिणा आदि श्रद्धा के अनुसार देकर अपने घर से विदा करें। और यदि स्त्री का श्राद्ध हो तो ब्राह्मणी को भोजन करवाकर साड़ी तथा दक्षिणा देकर विदा करें।;
पितृ पक्ष को श्राद्ध पक्ष भी कहा जाता है, जोकि भाद्रपद पूर्णिमा से अश्विन माह की अमावस्या तक चलता है। इन 16 दिनों के दौरान पितृों की आत्मा की शांति के लिए जो भी श्रद्धा पूर्वक अर्पित किया जाता है उसे श्राद्ध कहते हैं। श्राद्ध पक्ष में ब्राह्मण या ब्राह्मणियों को सुन्दर-सुन्दर भोजन करवाकर दक्षिणा दी जाती है। और पितृों को जल तर्पण किया जाता है। यदि किसी पुरुष का श्राद्ध हो तो ब्राह्मण को भोजन करवाकर वस्त्र और दक्षिणा आदि श्रद्धा के अनुसार देकर अपने घर से विदा करें। और यदि स्त्री का श्राद्ध हो तो ब्राह्मणी को भोजन करवाकर साड़ी तथा दक्षिणा देकर विदा करें।
खीर, पूरी और इमरती के भोजन से पितृ बहुत तृप्त होते हैं। पितृ पक्ष की महिमा को लेकर अनेक कथाएं भी प्रचलित हैं। जिनका पाठ तर्पण करते हुए किया जाता है। इनमें सबसे ज्यादा कर्ण की कथा कही जाती है जोकि महाभारत काल से सुनी जा रही है। महाभारत के युद्ध में वीरगति को प्राप्त होने के बाद जब कर्ण की आत्मा स्वर्ग में पहुंची तो उन्हें भोजन में सोना, चांदी, हीरे, जवाहरात परोसे गए। इस पर कर्ण ने इंद्र देव से इसका कारण पूछा तो इंद्रदेव ने कर्ण को बताया कि तुमने अपने जीवन काल में सोना,चांदी,हीरे जवाहरात ही दान किए थे, लेकिन तुमने कभी भोजन का दान नहीं दिया। और तुम्हारे पुत्र भी महाभारत के युद्ध में मारे जा चुके हैं, इसलिए तुम्हारे निमित्त किसी ने भी भोजन और तर्पण आदि दान नहीं किया है। तब इंद्र ने कर्ण को बताया कि उन्हें अपने पूर्वजों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। इस वजह से वह कभी कुछ दान ही नहीं कर पाए। यह जानकर इंद्रदेव ने कर्ण को उनकी गलती सुधारने का मौका दिया। और 16 दिन के लिए उन्हें पृथ्वी पर वापस भेजा। जब कर्ण 16 दिनों के लिए पृथ्वी पर वापस आए तो उन्होंने अपने पूर्वजों को याद करते हुए विधि-विधान से उनका तर्पण किया। तथा ब्राह्मणों को भोजन करवाकर दान-दक्षिणा देकर उन्हें विदा किया। इन्हीं 16 दिनों की अवधि को पितृ पक्ष कहा जाता है। और तभी से यह श्राद्ध प्रक्रिया आरंभ हुई।
पितृ पक्ष की एक पौराणिक कथा के अनुसार जोगे तथा भोगे दो भाई थे। दोनों भाई अलग-अलग रहते थे। परन्तु दोनों भाइयों में बहुत प्रेम था। जोगे बहुत धनी था और भोगे बहुत निर्धन था। जोगे की पत्नी को अपने धन का बड़ा अहंकार था। किन्तु भोगे की पत्नी बड़ी ही साधारण और सरल ह्दय वाली थी। पितृ पक्ष आने पर जोगे की पत्नी ने जोगे को पितृों का श्राद्ध करने को कहा। तब जोगे ने इसे व्यर्थ कार्य समझकर टालने की चेष्टा की। परन्तु उसकी पत्नी समझती थी कि यदि वह ऐसा नहीं करेंगे तो लोग बातें बनाएंगे। और उसे यह अपने मायके वालों को अपनी शान दिखाने और दावत पर बुलाने का यह उचित अवसर लगा। और वह अपने पति से बोली कि आप शायद मेरी परेशानी की वजह से टाल-मटोल कर रहे हैं। किन्तु इसमें मुझे कोई परेशानी नहीं होगी। मैं भोगे की पत्नी को बुला लूंगी। और वह मेरी मदद कर देगी। हम दोनों मिलकर सारा काम कर लेंगी। फिर उसने जोगे को अपने मायके न्यौता देने को भेज दिया। दूसरे दिन जोगे की पत्नी के बुलाने पर भोगे की पत्नी सुबह-सुबह आकर सारे काम में जुट गई। उसने रसोई तैयार की और अनेक पकवान बनाए। और सारे काम निपटाकर वह अपने घर वापस आ गई। आखिर उसे भी तो पितृों का श्राद्ध और तर्पण करना था। इस अवसर पर ना तो जोगे की पत्नी ने उसे वहां रोका और ना ही वह स्वयं वहां जोगे के घर पर रूकी। शीघ्र ही दोपहर हो गई। पितृ भूमि पर उतरे। पितृ पहले जोगे के यहां गए और उन्होंने देखा कि जोगे के यहां तो उसके ससुराल वाले भोजन पर जुटे हुए हैं। तो पितृ निराश होकर भोगे के यहां चले गए। परन्तु भोगे के यहां पर कुछ भी नहीं था। केवल मात्र पितृों के नाम पर अग्यारी दे दी गई थी। पितृों ने अग्यारी की राख चाटी और भूखे ही नदी के तट पर जा पहुंचे। थोड़ी देर में सारे पितृ वहां इक्ट्ठे हो गए और अपने-अपने यहां के श्राद्ध की बातें करने लगे। इसके बाद जोगे-भोगे के पितृों ने भी अपनी आपबीती सुनाई। और जोगे-भोगे के पितृ सोचने लगे कि अगर भोगे समर्थ होता तो शायद उन्हें आज भूखा ना रहना पड़ता। मगर भोगे के घर में तो दो जून की रोटी भी खाने को नहीं थी। यही सब सोचकर उन्हें भोगे पर दया आ गई। और अचानक पितृ देव नाच-नाच कर गाने ले कि भोगे के घर धन हो जाए, भोगे के घर धन हो जाए। शाम होने को हुई और भोगे के बच्चों को कुछ भी खाना नहीं मिला। और बच्चों ने अपनी मां से कहा कि मां हमें भूख लगी है। बच्चों को टालने की बजह से भोगे की पत्नी ने कहा कि जाओ आंगन में हौदी औंधी पड़ी है। उसे जाकर खोल लो और जो कुछ मिले बांटकर खा लेना। जब बच्चे वहां पहुंचे तो देखा कि हौदी सोने की मौहरों से भरी पड़ी है। बच्चे दौड़कर अपनी मां के पास आए और उन्होंने सारी बात भोगे की पत्नी यानि अपनी मां को बताई। बच्चों की बात सुनकर भोगे की पत्नी आंगन में आई और उसने हौदी को मौहरों से भरा हुआ देखा, और वह हैरान हो गई। इस प्रकार भोगे भी धनी हो गया। इसके बाद अगले साल जब श्राद् का दिन आया तो भोगे की पत्नी से 56 प्रकार के भोजन बनाएं। और उसने ब्राह्मणों को बुलाकर विधि-विधान से श्राद्ध किया। भोजन करवाया और दक्षिणा दी। अपने जेठ और जेठानी को सोने के बर्तनों में भोजन करवाया। इससे पितृ बहुत प्रसनन और तृप्त हुए। जैसे भोग के पितृों ने विधि-विधान से श्राद्ध करने पर भोगे को संपन्न कर दिया। वैसे ही पितृ पक्ष में अगर कोई अपने पितृों का विधिविधान से श्राद्ध और तर्पण आदि संस्कार करता है तो उसे धन-धान्य की प्राप्ति होती है। और उसके जीवन के सारे कष्ट दूर हो जाते हैं।