ये है विजयादशमी का महत्व, जानिए रामचरित्र मानस में क्या लिखा है

प्रतिवर्ष मनाया जाने वाला विजयादशमी का पर्व महज राम-रावण का युद्ध ही नहीं माना जाना चाहिए। बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक इस पर्व में छिपे हुए संदेश समाज को दिशा दे सकते हैं। स्वयं महापंडित दशानन इस बात को भलिभांति जानता था कि उसके जीवन का उद्धार राम के हाथों ही होना है। दूसरी ओर मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने भी रावण की विद्वता को नमन किया है।;

Update: 2018-10-19 11:20 GMT

प्रतिवर्ष मनाया जाने वाला विजयादशमी का पर्व महज राम-रावण का युद्ध ही नहीं माना जाना चाहिए।  बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक इस पर्व में छिपे हुए संदेश समाज को दिशा दे सकते हैं। स्वयं महापंडित दशानन इस बात को भलिभांति जानता था कि उसके जीवन का उद्धार राम के  हाथों ही होना है। दूसरी ओर मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने भी रावण की विद्वता को नमन किया है।

रामचरित्र मानस में जहां राम के चरित्र का सुंदर वर्णन किया गया है वहीं रावण के जीने के तरीके और विद्वता पर किए जाने वाले गर्व की छाया भी हमें दिखाई पड़ती है। रावण विद्वान होने  के साथ ही बलशाली भी था, किन्तु उसकी इसी गर्वोक्ति को बाली ने चूर चूर कर उसे छह माह तक अपनी कॉख में दबाए रखा था।

लंका पर एक छत्र राज करने वाले रावण ने अपने भाई कुबेर के साथ भी दगाबाजी की और पुष्पक विमान पर अपना कब्जा कर लिया। इन्ही सारी बुराइयों के चलते उसे मृत्यु लोक को जाना पड़ा। हम प्रतिवर्ष अंहकार के पुतले का दहन कर उत्सव मनाते हैं, किन्तु स्वयं का अंहकार त्यागने तत्पर दिखाई नहीें पड़ रहे, यह कैसा विजयादशमी पर्व है। 

हमारे अंदर छिपी चेतना का जागरण और विषयों का त्याग ही विजयादशमी पर्व का मुख्य संदेश है। आज हम विषयों के जाल में इस तरह उलझे हुए हैं कि स्वयं अपने अंदर चेतना और ऊर्जा को सही दिशा नहीं दे पा रहे हैं।  रावण से परेशान जनता को खुशहाल जीवन प्रदान करने के लिए ही भगवान राम का अवतरण हुआ।

हम आप सब इस बात को जानते हैं कि राम ने क्षत्रिय कुल में जन्म लिया था। इसके विपरित रावण ब्राम्हण था और वेदों- पुराणों के ज्ञाता तथा मुनि श्रेष्ठ विश्रवा का पुत्र था। रावण के दादा ऋषि पुलत्स्य भी देव तुल्य माने जाते थे। राम-रावण युद्ध के दौरान कहीं न कहीं राम के हृदय में रावण के प्रति दया जरूर थी।

मर्यादा पुरूषोत्तम जानते थे कि एक ब्राम्हण का वध करना महापाप कर्म हैं यही कारण है कि उन्होंने रावण वध के बाद ब्राम्हण की हत्या के लिए प्रायश्चित्ा किया और प्रार्थना की कि उनके इस पाप को जन-सामान्य की सुरक्षा के लिए आवश्यक मानते हुए उन्हें ईश्वर इस पाप से मुक्त करें।

आज के युग में यह भी जानने योग्य प्रसंग है कि रावण वध के पश्चात्ा स्वयं भगवान राम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को रावण के पास ज्ञान लेने भेजा, किन्तु अंतिम सांसें ले रहे रावण ने लक्ष्मण की ओर देखा तक नहीं। बाद में स्वयं मर्यादा पुरूषोत्तम ने रावण के चरणों पर हाथ जोड़ते हुए ज्ञान प्रदान करने का निवेदन किया और रावण ने अपने अहंकार को त्यागते हुए गूढ़ ज्ञान प्रदान किया। 

दशहरा अथवा विजयादशमी पर्व दस प्रकार के महापापों से बचने का संदेश है। यह विजय पर्व हमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी से बचने और इन बुरी आदतों से दूर रहने प्रेरणा देता है। हम उत्साह पूर्वक रावण के पुतले का दहन करते समय इन दस पापों को अग्नि के हवाले कर दे तो हमारा विजय पर्व  सार्थक हो सकता है।

महज उछलकूद, नृत्य, गान, आतिशबाजी सांस्कृतिक आयोजन ही विजयादशमी पर्व के प्रतीक न माने जाएं। पर्व की गहरायी में समाए संदेश लोगों तक पहंुचें और घर-घर अमन चैन और खुशियां बरसें यही इस पर्व का संदेश है। दशहरा पर्व को विजया दशमी नाम देने के पीछे भी ग्रहों की स्थिति ही मुख्य रहीे हैं।

शास्त्रों के अनुसार आश्विन शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को शुक्र उदय होने के समय जो मुहुर्त होता हैं उसे ज्योतिष शास्त्र में विजय मुहर्त कहा जाता है। ज्योतिष की बातों पर विश्चास करें तो शुक्र उदय का वह काल सर्वसिद्धी दायक माना जाता है।  यही कारण है कि दशहरा पर्व विजय दशमी के नाम से जाना जाता है।

दशहरा के पावन पर्व पर सोन पत्ती अथवा शमी वृक्ष की पत्तियां एक दूसरे को आदान-प्रदान करने कि परंपरा भी लम्बे समय से चली आ रही है इस परंपरा के पीछे एक कथानक छिपा हुआ है। कहते है कि भगवान श्री राम लंका गमन के समय जब इस वृक्ष के पास से गुजरे तब इसी शमी वृक्ष ने उनकी विजय का उदघोष किया था।

कहा जाता है कि पाडंवों के अज्ञातवास के समय अर्जुन ने चौदहवें वर्ष में इसी शमी वृक्ष पर अपना धनुष छिपा रखा था। आज भी दशहरा पर्व पर हिन्दुधर्मावलंबी शमी वृक्ष की पत्तियों को प्राप्त कर एक रावण के चरणों पर हाथ जोड़ते हुए ज्ञान प्रदान करने का निवेदन करते हैं।

विजय दशमी मनाए जाने का कोई भी कारण हो, इतना अवश्य है कि यह पर्व गर्व को समाप्त करने और संस्कृति के अनुसार आचरण करने का दिशा निर्देश देता प्रतीत होता है। अपने हृदय और आत्मा में व्याप्त बुराई को तिलांजलि देकर सदव्यवाहर को अपनाना ही विजयादशमी कहा जा सकता है।

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