अलग तरह का सपना देखा, डॉ. सुकामा का जीवन लड़कियों को समर्पित, 19 साल की उम्र से दे रही वैदिक ज्ञान

मात्र 19 साल की उम्र से वे गुरुकुल में लड़कियों को पढ़ा रही हैं। कर्मशील, विनम्र और समर्पण की पहचान बनकर 1980 से डॉ. सुकामा ने कन्या गुरुकुल नरेला से स्नातक की और वहीं पढ़ाने लगी। इसके बाद 1988 में अमरोहा के चोटीपुरा में कन्या गुरुकुल चलाया। 2018 से रुड़की में विश्ववारा कन्या गुरुकुल चला रही हैं।;

Update: 2023-01-28 07:22 GMT

हरिभूमि न्यूज : रोहतक। पद्मश्री से नवाजी जाने वाली डॉ. सुकामा झज्जर-रोहतक का ही बल्कि हरियाणा का अभिमान है। देश-विदेश में गुरुकुल पद्धति का झंडा लहराने वाली डॉ. सुकामा ने अपना पूरा जीवन लड़कियों को सबल बनाने के लिए समर्पित कर दिया। जिस उम्र में घर-गृहस्थी बसाने के सपने होते हैं, उस उम्र में डॉ. सुकामा ने अलग ही तरह का सपना देखा। उन्होंने शादी नहीं करने संकल्प लिया और लड़कियों को गुरुकुल पद्धति में ढालने की ठान ली।

मात्र 19 साल की उम्र से वे गुरुकुल में लड़कियों को पढ़ा रही हैं। कर्मशील, विनम्र और समर्पण की पहचान बनकर 1980 से डॉ. सुकामा ने कन्या गुरुकुल नरेला से स्नातक की और वहीं पढ़ाने लगी। इसके बाद 1988 में अमरोहा के चोटीपुरा में कन्या गुरुकुल चलाया। 2018 से रुड़की में विश्ववारा कन्या गुरुकुल चला रही हैं। गुरुकुल परंपरा को समर्पित डॉ. सुकामा को अब पद्मश्री सम्मान दिया जाएगा। डॉ. सुकामा ने हरिभूमि से विशेष बातचीत में अपने जीवन के संस्मरण सुनाए। डॉ. सुकामा का सपना है कि हर लड़की वैदिक संस्कृति की पुरोधा हो। जीवन के हर मोड़, हर परिस्थिति में डटकर खड़ी रहें। उन्हें कमजोर कहने वाला कोई न हो, बल्कि लड़कियों को अपना साहस समझें।

पिता ने लिया संकल्प

डॉ. सुकामा का जन्म झज्जर जिले के गांव आकूपुर में 1961 को हुआ। उनके पिता राजेंद्र देव सिंह पटवारी थे, लेकिन उन्हें उस पद पर फैला भ्रष्टाचार पसंद नहीं था। उनके पिता का किसी एक गांव में आना-जाना था और यहां के सरपंच आर्य समाजी थे। पिता ने वहां सत्यार्थ प्रकाश पढ़ी तो गुरुकुल के बारे में जाना। इसके बाद उन्हें पता लगा कि नरेला में स्वामी ओमानंद सरस्वती कन्या गुरुकुल चलाते हैं। वहां का दौरा किया, पूरी जानकारी ली और ठान लिया कि वे अपनी बेटी सुकामा को गुरुकुल में ही पढ़ाएंगे। उस समय सुकामा 3-4 वर्ष की थी।

छात्रा को बनाया आईएएस

चोटीपुरा कन्या गुरुकुल में उन्होंने हर क्षेत्र में बेहतरीन छात्राएं तैयार की। वंदना चौहान यहीं गुरुकुल में पढ़कर आईएएस बनीं। वंदना ने 2012 की प्रशासनिक सेवा में 8वां स्थान पाकर गुरुकुल का मान बढ़ाया। वंदना फिलहाल उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग में डीएम हैं। उनकी छात्राएं दो अलग-अलग विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों में पढ़ा रही हैं। इनके अलावा सुमंगला छात्रा ने तिरंदाजी प्रतियोगिता में ओलंपिक में भी भागेदारी की।

सबसे पहले फोन पर दिल्ली से बधाई आई

डॉ. सुकामा ने बताया कि वे 25 जनवरी को गुरुकुल में ही थी। उनके पास दिल्ली से जयप्रकाश शास्त्री का फोन आया और बधाई दी। पूछने पर बताया कि आपको पद्मश्री मिलेगी और लिस्ट में नाम है। इसके बाद हम खुशी से फूले नहीं समाए। लिस्ट देखी तो आंखें चमक गई। खुशी में बच्चियों को फल और दूध भी दिया। सभी बच्चियों की भी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। स्टाफ भी प्रसन्नता से झूम उठा। गुरुकुल के लिए यह सम्मान बड़ी उपलब्धि है।

पद्मश्री ने बढ़ाया मान

मेरा यही कहना है कि गुरुकुल पद्धति सर्वश्रेष्ठ है। यहां पढ़ाई के साथ-साथ संस्कार और राष्ट्रभक्ति की भावना कूट-कूटकर बच्चों में भरी जाती है। गुरुकुल से पढ़ने वाली छात्राएं जीवन में किस मोड़ पर पीछे नहीं रहती। गृहस्थ जीवन को भी वे यहां मिले संस्कारों से सुखमय बनाती हैं। जब छात्रा थी तो मैंने दिन-रात एक करके पढ़ाई की। गलती पर आचार्या पीटती भी थी। आज वह पिटाई काम आ रही है। जब खुद आचार्या बनी, तो तब बच्चों को दिन-रात एक करके पढ़ाया और हर कला में निपुण बनाया। मेरा जीवन गुरुकुल पद्धति और छात्राओं के लिए है और हमेशा रहेगा। पद्मश्री अवाॅर्ड ने गुरुकुल पद्धति का मान बढ़ाया है - डॉ. सुकामा, आचार्या, विश्ववारा गुरुकुल, रुड़की।

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