हकृवि वैज्ञानिकों ने विकसित की दाना मटर की रोग प्रतिरोधी किस्म एचएफपी-1428
विश्वविद्यालय द्वारा विकसित इस किस्म को भारत सरकार के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के कृषि एवं सहयोग विभाग की ‘फसल मानक, अधिसूचना एवं अनुमोदन केंद्रीय उप-समिति’ द्वारा नई दिल्ली (new Delhi) में आयोजित बैठक में अधिसूचित व जारी कर दिया गया है।;
हिसार। चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिकों ने इस वर्ष दाना मटर की नई रोग प्रतिरोधी (Resistant) किस्म एचएफपी.-1428 विकिसत कर एक ओर उपलब्धि को विश्वविद्यालय के नाम किया है। दाना मटर की इस किस्म को विश्वविद्यालय के अनुवांशिकी एवं पौध प्रजनन विभाग के दलहन अनुभाग द्वारा विकसित किया गया है।
विश्वविद्यालय द्वारा विकसित इस किस्म को भारत सरकार के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के कृषि एवं सहयोग विभाग की 'फसल मानक, अधिसूचना एवं अनुमोदन केंद्रीय उप-समिति' द्वारा नई दिल्ली में आयोजित बैठक में अधिसूचित व जारी कर दिया गया है।
विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर समर सिंह ने कृषि वैज्ञानिकों को इस उपलब्धि पर बधाई दी और भविष्य (Future) में भी निरंतर प्रयासरत रहने का आह्वान किया। उन्होंने बताया कि इससे पूर्व विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिकों द्वारा दाना मटर की अपर्णा, जयंती, उत्तरा, एच.एफ.पी.-9426, हरियल, एच.एफ.पी.-529 व एच.एफ.पी.-715 किस्में विकसित की जा चुकी हैं।
उत्तर-पश्चिम भारत के मैदानी इलाकों के लिए की गई है विकसित
रबी में बोई जाने वाली दाना मटर की एच.एफ.पी.-1428 किस्म को भारत के उत्तर-पश्चिम मैदानी इलाकों के सिंचित क्षेत्रों में काश्त के लिए अनुमोदित किया गया है जिसमे जम्मू और कश्मीर के मैदानी भाग, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड राज्य शामिल हैं।
कम अवधि में पककर तैयार होती है किस्म
विश्वविद्यालय के अनुसंधान निदेशक डॉ. एस.के. सहरावत ने बताया कि रबी में सिंचित क्षेत्रों में काश्त की जाने वाली दाना मटर की इस किस्म की खासियत यह है कि इसकी फसल कम अवधि (लगभग 123 दिन) में पककर तैयार हो जाती है। यह हरे पत्रक एवं सफ़ेद फूलों वाली बौनी किस्म है व इसके दाने पीले-सफेद (क्रीम) रंग के मध्यम आकार व थोड़ी झुर्रियों एवं हल्के बेलनाकार होते हैं।
इसके पौधे सीधे बढऩे वाले होते हैं इसलिए फलियां लगने के बाद गिरते नहीं हैं, जिससे इसकी उत्पादकता नहीं घटती एवं कटाई भी आसान हो जाती है। इस किस्म की एक और खाशियत यह है की इसकी जड़ों में नत्रजन स्थापित करने वाली गांठें और नाइट्रोजीनेस गतिविधि बहुत अधिक होती है जिसके कारण इसकी पर्यावरण से नत्रजन स्थापित करने की क्षमता अत्यधिक है जोकि इसके उपरांत ली जाने वाली फसलों के लिए भी लाभदायक है। इसकी औसत पैदावार 26-28 क्विंटल प्रति हेक्टेयर एवं अधिकतम पैदावार 40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक आंकी गई है।