International Father's Day 2019 : अंतर्राष्ट्रीय फादर्स डे कब है, जानें पिता बनने पर मिलने वाली छुट्टियां
International Father's Day 2019 : अंतर्राष्ट्रीय फादर्स डे कब है (International Father's Day), फादर्स डे क्यों मनाया जाता है (Why Celebrationg Fathers Day) और फादर्स डे कब मनाया जाता है (When Is Fathers Day) अगर आपको भी इन सवालों के जवाब नहीं पता तो बता दें कि पिता दिवस 2019 (Fathers Day 2019) में 16 जून (16 June) को मनाया जाएगा। पिता दिवस (Father's Day) जून महीने के तीसरे रविवार को मनाया जाता है। पिता दिवस क्यों मनाया जाता है इसके पीछे एक रोचक कहानी है- सोनेरा डोड की। बात उस वक्त की है जब बचपन में ही सोनेरा डोड की मां का देहांत हो गया था। सोनेरा डोड के पिता विलियम स्मार्ट ने सोनेरो को मां और पिता दोनों का प्यार दिया। सोनेरा डोड जब थोड़ी बड़ी हुईं तो उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति कैल्विन कोली को खत लिखा और 1924 में अमेरिकी राष्ट्रपति कैल्विन कोली ने अंतर्राष्ट्रीय फादर्स डे मनाने की सहमति दी। लकिन 1966 में अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जानसन ने जून के तीसरे रविवार को फादर्स डे मनाने की आधिकारिक घोषणा की। धीरे धीरे भारत में भी इसका प्रचार-प्रसार बढ़ने लगा और फिर विश्व भर में पिता दिवस मनाया जाने लगा।;
International Father's Day 2019 : अंतर्राष्ट्रीय फादर्स डे कब है (International Father's Day), फादर्स डे क्यों मनाया जाता है (Why Celebration Fathers Day) और फादर्स डे कब मनाया जाता है (When Is Fathers Day) अगर आपको भी इन सवालों के जवाब नहीं पता तो बता दें कि पिता दिवस 2019 (Fathers Day 2019) में 16 जून (16 June) को मनाया जाएगा। पिता दिवस (Father's Day) जून महीने के तीसरे रविवार को मनाया जाता है। पिता दिवस क्यों मनाया जाता है इसके पीछे एक रोचक कहानी है- सोनेरा डोड की। बात उस वक्त की है जब बचपन में ही सोनेरा डोड की मां का देहांत हो गया था। सोनेरा डोड के पिता विलियम स्मार्ट ने सोनेरो को मां और पिता दोनों का प्यार दिया। सोनेरा डोड जब थोड़ी बड़ी हुईं तो उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति कैल्विन कोली को खत लिखा और 1924 में अमेरिकी राष्ट्रपति कैल्विन कोली ने अंतर्राष्ट्रीय फादर्स डे मनाने की सहमति दी। लकिन 1966 में अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जानसन ने जून के तीसरे रविवार को फादर्स डे मनाने की आधिकारिक घोषणा की। धीरे धीरे भारत में भी इसका प्रचार-प्रसार बढ़ने लगा और फिर विश्व भर में पिता दिवस मनाया जाने लगा। आइये जानते हैं पिता बनने पर मिलने वाली छुट्टियों के बारे में...
पिता बनने पर मिलने वाली छुट्टियां
देश | छुट्टी की अवधि |
बांग्लादेश | कोई छुट्टी नहीं |
फ़्रांस | 156 सप्ताह और 26 सप्ताह का वेतन |
पाकिस्तान | कोई छुट्टी नहीं |
जर्मनी | 156 सप्ताह और 56 सप्ताह का वेतन |
भारत | 2 सप्ताह |
नेपाल | 4 सप्ताह |
श्रीलंका | कोई छुट्टी नहीं |
इंग्लैंड | 13 सप्ताह |
चीन | कोई छुट्टी नहीं |
अमेरिका | 12 सप्ताह |
* 27 वर्षीय महेश कुमार एक सॉफ्टवेयर कम्पनी में काम करते हैं। इस जुलाई में वह अपने जीवन में पहली बार पिता बनने का अनुभव करेंगे। इसलिए मई में उन्होंने अपने बॉस से कहा कि उन्हें अपनी पत्नी की डिलिवरी के आसपास छुट्टियों की जरूरत होगी। बॉस ने मालूम किया कि कितने दिन की छुट्टियां चाहते हों? जब कुमार ने 10-15 दिन कहा तो सुनते ही बॉस के हावभाव बदल गये, जैसे कि कुमार ने उनकी अवमानना कर दी हो। इससे पहले कि बॉस के मुंह से कोई बात निकलती, कुमार ने हड़बड़ाहट में कहा, ''मुझे सिर्फ 2-3 दिन की छुट्टियां चाहिए और एक सप्ताह में घर से ही काम कर लूंगा।''
* 35 वर्ष के प्रभात सिंह दहिया बैडमिंटन के कोच हैं। वह 8 माह पहले पिता बने थे और उन्होंने अपने फुलटाइम जॉब को पार्ट टाइम में बदल दिया, भले ही इसका अर्थ वेतन में कटौती थी, लेकिन उनका मानना है कि फुलटाइम काम करने के कारण यह संभव नहीं था कि वह अपने बच्चे की परवरिश में अपनी पत्नी के साथ बराबर का योगदान दे पाते। दहिया की पत्नी एक स्कूल में अध्यापिका हैं।
* 52 वर्षीय पत्रकार ओंकार सिंह दो बच्चों के पिता हैं। उनकी पत्नी प्रोविडेंट फंड कार्यालय में सेवारत हैं। उन्होंने 8 साल की अवधि के दौरान पदोन्नति के कम से कम तीन अवसरों को छोड़ा क्योंकि वह अपने पहले बच्चे की परवरिश पर ध्यान देना चाहती थीं। पत्रकार के रूप में ओंकार सिंह को देर रात तक काम करना पड़ता है। अगर उनकी पत्नी पदोन्नति ले लेती तो इसका अर्थ यह होता कि उन्हें अधिक देर तक काम करना पड़ता और शहर से बाहर ट्रांसफर होने पर आने जाने में भी ज्यादा समय लगता। जाहिर है इससे बच्चे की देखभाल पर असर पड़ता।
* 48 वर्षीय विजय भसीन चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं और उनकी पत्नी एक विज्ञापन कम्पनी में काम करती थीं। बेटे की देखभाल करने के लिए पत्नी को जाॅब छोड़ना पड़ा, खासकर इसलिए कि अपने शुरुआती वर्षों में उनका बच्चा अकसर बीमार पड़ जाता था। सवाल यह है कि बच्चे की देखभाल के लिए विजय भसीन ने अपने काम में से समय क्यों नहीं निकाला? इस पर वह कहते हैं, ''मैं अधिक आमदनी कर रहा था, अकेले अपनी पत्नी के नेतृत्व में हम लोग घर का खर्च नहीं चला पाते, इसलिए पत्नी को ही अपने कॅरिअर की कुर्बानी देनी पड़ी।''
* जहां तक 45 वर्षीय वकील नफीस अहमद की बात है तो पैरेंटिंग की लिंग सीमाएं एकदम स्पष्ट हैं। उनकी पत्नी और घर के अन्य सदस्य उनके तीन बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी लिए हुए हैं। नफीस अहमद की अपनी जिम्मेदारियां केवल इतनी है कि समय मिलने पर बच्चों के साथ खेल लिए, उन्हें अच्छा बनने के उपदेश दे दिये और उनकी भौतिक जरूरतों को पूरा करने के लिए पैसे उपलब्ध करा दिए। नफीस अहमद कहते हैं, ''जहां तक बच्चे को स्नान कराना, कपड़े पहनाना, उसके बाल बनाना आदि की बात है तो यह काम मैंने अपनी पत्नी के लिए छोड़ा हुआ है क्योंकि प्राकृतिक तौरपर वह ही इन कामों को अच्छे से करने में सक्षम है।''
उक्त चार पिताओं के अनुभव मंे और एक जो पिता बनने जा रहा है उसकी कहानी में एक साझी बात यह है कि पिता घर के बाहर वह काम करता है, जिससे आमदनी होती है ताकि बच्चे की जरूरतों को पूरा किया जा सके और मां घर के भीतर बच्चे की देखभाल करती है, लेकिन इसका इसे कोई मेहनताना नहीं मिलता। यह कहानी दुनियाभर के पिताओं की है)।
दुनियाभर की सभी पितृसत्तात्मक संस्कृतियों में श्रम विभाजन की यही स्थिति है-मर्द घर के बाहर पैसा कमाए और पत्नी घर के भीतर बिना पैसे के मेहनत करती रहे। यही कारण है कि महेश कुमार के बॉस, बल्कि भारत में लगभग सभी संगठनों में बॉस, यह कल्पना तक नहीं करते कि पुरूष कर्मचारी को भी महिला कर्मचारी के बराबर पितृत्व छुट्टी दे दी जाए। यही वजह है कि प्रभात के पास एकमात्र विकल्प यह था कि अपने कॅरिअर की वरीयता कम कर दी जाए ताकि बच्चे की परवरिश में हिस्सेदारी की जा सके। यही कारण है कि विजय भसीन, ओंकार और नफीस अहमद को बच्चों की देखभाल की सारी जिम्मेदारियां अपनी अपनी पत्नियों पर छोड़नी पड़ी, जबकि उनकी स्वयं की जिम्मेदारी केवल पैसे जुटाने तक सीमित रह गयी।
इस प्रकार केयर के संदर्भ में जो असमतल श्रम विभाजन है, उसके अनेक कुप्रभाव सामने आते हैं। इसलिए आज दुनियाभर में केयर वर्क के सिलसिले में बराबर के विभाजन पर बल दिया जा रहा है। मैन केयर नामक एक ग्लोबल संस्था ने तो इसके लिए अभियान भी छेड़ा हुआ है, जैसा कि नेट पर उसकी रिपोर्टों से मालूम होता है। आधुनिकता, पंूजीवाद और भूमंडलीकरण के कारण लगातार बड़ी संख्या में महिलाएं अपने घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर वेतन युक्त रोजगार की तलाश कर रही हैं। आज दुनियाभर में महिलाएं कार्यबल का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा हैं। नतीजतन महिलाओं पर दोहरा बोझ पड़ रहा है-एक ओर उन्हें दफ्तर मंे काम करना पड़ता है जिसका उन्हें वेतन मिलता है और दूसरा घर पर केयर वर्क करना पड़ता है जिसका कोई पैसा नहीं मिलता है।
'बिना मेहनताने का केयर वर्क' का क्या अर्थ है? संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा का सहारा लेकर अगर इसकी व्याख्या की जाए तो मतलब यह है कि कि घरेलू काम (खाना पकाना, सफाई करना, कपड़े धोना, पानी व ईंध्ान एकत्र करना) और लोगों की सीधे केयर करना (जिसमें बच्चे, बूढ़े व्यक्ति, अपंग और स्वस्थ्य वयस्क शामिल हैं) और यह काम घरों व समुदायों में बिना किसी आर्थिक लाभ के करना।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महिलाएं पुरूषों की तुलना में 2.5 गुना अध्ािक बिना मेहनताने का केयर वर्क करती हैं, जबकि भारतीय महिलाओं के लिए यह 10 गुना है। यह बहस की जा सकती है कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता जब दोनों पुरूष व महिलाएं बराबर का काम करते हैं-पुरूष मेहनताने वाला काम और महिलाएं बिना मेहनताने वाला काम-अगर दोनों का योगदान एक ही घर के लिए है। लेकिन इससे फर्क पड़ता है।
मेहनताने वाले काम को समाज में अध्ािक मूल्य मिलता है, दूसरी ओर लड़कियां व महिलाएं जो बिना मेहनताने वाले काम में व्यस्त रहती हैं, उससे उनका सामाजिक सम्पर्क कम हो जाता है, खेल व शिक्षा के लिए पर्याप्त समय नहीं मिल पाता और उनके पास आर्थिक संसाधन भी नहीं होते। इस सबके कारण पुरूषों को प्रतिस्पर्धात्मक प्रोफेशनल लाभ मिलता है, खासकर इसलिए भी कि उन पर महिलाओं जैसा बोझ भी नहीं होता। नतीजतन कार्यस्थल पर महिलाओं को कम वेतन व अन्य असमानताओं का सामना करना पड़ता है। बिना बच्चे वाली महिलाओं की तुलना में मांएं कम पैसा कमाती हैं।
28 देशों में किये गये अध्ययन से मालूम हुआ कि 30-39 वर्ष आयु वर्ग की महिलाएं जब अपने बच्चे को जन्म देती हैं तो उसके बाद उनकी आमदनी में कमी हो जाती है। स्पष्ट शब्दों में बात सिर्फ इतनी सी है कि वास्तविक लिंग समता उस समय तक असंभव है जब तक हम केयर जिम्मेदारियों का असमतल विभाजन करते रहेंगे। यह अंतर तभी समाप्त होगा जब बच्चों की देखभाल में पुरूष बराबर की हिस्सेदारी करें। जब पुरूष अपने पिता होने की जिम्मेदारियां बराबर से निभाएंगे तो दोनों परिवार व राष्ट्रीय स्तर पर इसके अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक, स्वास्थ्य व आर्थिक लाभ होंगे।
अध्ययनों से मालूम हुआ है कि अगर बच्चों की देखभाल में पुरूषों का सकारात्मक हस्तक्षेप रहता है तो जच्चा को तेजी से स्वास्थ्य लाभ मिलता है और पोस्ट-पार्टम डिप्रेशन दर में भी कमी आती है। जो पिता अपने बच्चों की परवरिश में शामिल रहते हैं वह अपने बच्चों और जीवनसाथी के प्रति कम हिंसक होते हैं। ध्यान रहे कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा का चक्र अकसर अंतर-पीढ़ी होता है और इससे यह चक्र टूट जाता है क्योंकि बेटांे की परवरिश हिंसक पिता के साथ नहीं होती।
अन्य लाभों में प्रजनन व मानसिक स्वास्थ्य में सुधार देखने को मिलता है दोनों पुरूषों व महिलाओं की, साथियों में बेहतर संबंध विकसित होता है और बच्चे के मानसिक विकास पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जहां तक आर्थिक लाभ की बात है तो विभिन्न अध्ययनों से मालूम होता है कि अगर भारत में घर से बाहर उतनी ही महिलाएं कार्य करें जितना कि पुरूष करते हैं तो सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 1.7 ट्रिलियन डाॅलर की वृद्धि होगी।
अब जब पुरूषों के बच्चों के केयर में शामिल होने के इतने लाभ हैं तो सवाल यह है यह स्थिति नियम बनने की बजाए अपवाद ही क्यों बनी हुई है? दरअसल, इसमें तीन अड़चनें हैं। पहली यह कि पारम्परिक सामाजिक मान्यताएं हैं कि बच्चों की देखभाल करने की जिम्मेदारी केवल महिलाओं की है। दूसरा यह कि आर्थिक व कार्यस्थल की सच्चाइयां फैसलों को प्रभावित करती हैं और परम्परागत श्रम विभाजन को बरकरार रखती हैं। तीसरा वह नीतियां हैं जो बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारियों को गैर बराबर बनाए हुए हैं।
मसलन, एक सर्वेक्षण में मालूम हुआ कि 85 प्रतिशत पुरूष इस बात से सहमत हैं-डायपर बदलना, बच्चों को स्नान कराना और फीड कराना मां की जिम्मेदारियां हैं। दूसरी ओर अधिकतर महिलाओं का मानना है कि घर वह परम्परागत जगह है, जहां उन्हें अपने शक्तिशाली होने का एहसास होता है और वह इस अहसास को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। इस उलझन भरे समाजिक नियम के चलते यथास्थिति को रातभर में नहीं बदला जा सकता। लेकिन शुरुआत की जा सकती है और वह इस तरह की केयर देने के मामले में पुरूषों की भूमिकाआंे को सार्वजनिक व नीतिगत बहस का मुद्दा बनाया जाए।
दरअसल, पहली आवश्यकता यह है कि कार्यस्थलों पर ऐसी नीतियां बनाई जाएं कि बतौर पैरेंट्स पुरूषों की भी महिलाओं के बराबर जिम्मेदारियां हैं। इसके लिए जरूरी होगा कि पुरूषों को भी वेतनयुक्त पितृत्व छुट्टी दी जाए, जो पुरूष पिता बनने जा रहे हैं उन्हें मातृत्व व चाइल्ड केयर की टेªनिंग दी जाए और चाइल्ड केयर व गृहकार्य को ऐसा काम बनाया जाये जिसका पैसा मिले और इस पैसे की गणना घरेलू बजट से लेकर देश के जीडीपी तक में की जाए।
मानसिकता को बदलना कठिन होता है, लेकिन नीतियों को आसानी से बदला जा सकता है। जब नीतियां बदली जाएंगी तो कभी न कभी उसके नतीजे भी बरामद होंगे। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि यह काम आसान है। पीआर और एचआर ऐसे दो क्षेत्र हैं जिनमें महिलाओं का दबदबा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या महिला एचआर प्रमुख कोई बदलाव ला रही हैं? बावजूद इसके कि महिलाओं को पितृत्व छुट्टी से लाभ होता है,
महिला बहुल क्षेत्र व महिला संगठन अब भी पितृत्व छुट्टी नीति को लेकर सामने नहीं आये हैं। एक अन्य समस्या यह है कि अगर संगठन अपनी नीतियां बदल भी देंगे तो भी इसका प्रभाव अधिकतर भारतीय पिताआंे पर नहीं पड़ेगा जो अनौपचारिक क्षेत्र मंे काम करते हैं। गरीबी के कारण उन्हें अपने परिवार से लम्बे समय तक आर्थिक पलायन करना पड़ता है। ऐसे पुरूषों की कैसे मदद की जाए कि वह अपने बच्चों की देखभाल या केयर में योगदान करें?
बहरहाल, यह समस्या केवल गरीब परिवारों तक सीमित नहीं है। रईस, मध्य वर्ग व शिक्षित पुरूषों की भी समस्या यह है कि वह अपने बच्चों के साथ ज्यादा समय नहीं गुजार पाते हैं। जल्द बाप बनने जा रहे महेश कुमार से जब यह मालूम किया गया कि वह पिता बनने के बारे में कैसा महसूस कर रहे हैं, तो उनका जवाब था, ''डर रहा हूं। ज्यादा डर आर्थिक है लेकिन नैतिक डर भी है कि क्या मैं अपने बच्चे की परवरिश इस कठिन प्रतिस्पर्धात्मक व भौतिक समाज में अच्छे इंसान के रूप में कर पाऊंगा?''
शायद कुमार के प्रश्न का उत्तर आधुनिकता से कहीं अलग है और चाहता है कि हम अपने पितृत्व जिम्मेदारियों के विचारों पर फिर से गौर करें। दिलचस्प बात यह है कि नीलगिरी पहाड़ियों में रहने वाले एक आदिवासी पिता गंगाधरण का कहना है, ''जब एक माह पहले मेरे बेटे का जन्म हुआ तो मैं बहुत चिंतित था। मैं जानता हूं कि यह केवल मेरी जिम्मेदारी नहीं है या केवल मेरी पत्नी की यह मेरे विस्तृत परिवार की है कि हम उसकी परवरिश करें। एक आदिवासी बच्चे की परवरिश पूरा समुदाय करता है और जो कुछ हो रहा होता है उसमें हर कोई हिस्सेदार होता है।''
आमतौर से शहरी भारतीय आदिवासी ज्ञान को प्राचीन बकवास कहकर नजरअंदाज कर देते हैं। लेकिन क्या बच्चे केवल जैविक पैरेंट्स की ही जिम्मेदारी हैं? क्या समाज का इस सिलसिले में कोई दायित्व नहीं है? अगर हां, तो चाइल्ड केयर के लिए जन सहयोग आवश्यक है जोकि बहुत शक्तिशाली तरीका हो सकता है केयर वर्क में लिंग समता स्थापित करने के लिए।
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