Sunday Special: राजस्थान की रणभूमि की खोज है बिहार का शाही व्यंजन बाटी चोखा, जानें इसका इतिहास
बाटी चोखा आमतौर पर बिहार व पूर्वी यूपी का शाही व्यंजन है। वहीं आज यह देश के अलग-अलग हिस्सों में भी मिलने लगा है। देखने में साधारण, स्वाद में उम्दा व सेहत के लिए काफी फायदेमंद है। इसकी विशेषताओं को जानने के बाद आप बाटी चोखा की उत्पत्ति के बारे में जानने के इच्छुक होंगे। तो बता दें, वैसे बाटी चोखा राजस्थान की रणभूमि से निकला हुआ व्यंजन है।;
बाटी-चोखा (baati-chokha) एक ऐसा व्यंजन जिसका नाम सुनने के बाद पूर्वांचल वासियों के मन में इसको खाने की प्रबल इच्छा जाग्रत हो जाती है। बाटी चोखा की प्रसिद्धि और पकड़ का आलम ये है कि यदि इसको दिहाड़ी मजदूर पसंद करता है तो वहीं अमीर और सुविधा सम्पन्न या तथाकथित पैसे वाले भी इसको शौक से खाना और बनाना पसंद करते हैं।
कहा जाता है कि बाटी चोखा ही एक ऐसा व्यंजन (Bati Chokha Recipes) है, जिसको भोज में बनाते समय आयोजक से लेकर आगंतुक तक की भागीदारी सम्लित रहती है। बाटी चोखा की अहमित (importance of baati chokha) का आप अंदाजा इससे ही लगा सकते हैं कि यह पूर्वांचल (Purvanchal) के करीब-करीब तमाम जिलों में कस्बों से लेकर गांव और शहरों तक बड़े भोज आयोजन के बाद बाटी चोखा का भोजन देकर ही आयोजन की संपूर्ण माना जाता है। इसकी खूबियों को जानने के बाद बाटी-चोखा व्यंजन की उत्पत्ति (Origin of Bati-Chokha) के बारे में जानने के लिए आप उत्सुक होंगे।
बताया जाता है कि बाटी मुख्य रूप से राजस्थान (Rajasthan) का पारम्परिक व्यंजन है। जिसकी हिस्ट्री (Bati Chokha History) लगभग 1300 साल पुरानी है। 8वीं सदी में राजस्थान में बप्पा रावल ने मेवाड़ में सिसोदिया राजवंश की स्थापना की (ये महाराणा प्रताप के वंशज थे)। उस वक्त राजपूत सरदार द्वारा अपने साम्राज्यों को विस्तार दिया जा रहा था। जिसकी वजह से युद्ध भी होते थे। इन्हीं युद्धों के बीच बाटी बनने का चलन शुरू हुआ। उस वक्त युद्ध के काल में एवं रणभूमि में हजारों सैनिकों के लिए भोजन की व्यवस्था करना चुनौतीपूर्ण काम होता था।
भोजन नहीं मिलने की वजह से कई बार सैनिकों को भूखे-प्यासे ही रहना पड़ जाता था। इन स्थितियों के बीच एक बार एक सैनिकों द्वारा सुबह की रोटी के लिए आटा गूंथा गया। पर रोटी तैयार होने से पूर्व ही रणभूमि में पहुंचने का वक्त आ गया। उस वक्त सैनिक आटे से बनी लोइयों को तप्त मरुस्थल में छोड़कर जंग के मैदान में चले गए। जब शाम होने पर सैनिक वहां वापस लौटे तो लोइयां तप्त रेत में दब चुकी थीं। फिर सैनिकों ने उन लाइयों को रेत से बाहर से निकालकर देखा तो वो दिनभर सूर्य व रेत की तपन से पूर्ण रूप से सिंक चुकी थीं। बुरी तरह से थक चुके सैनिकों ने उन्हें खाकर देखा तो वह काफी स्वादिष्ट लगी। फिर उनको पूरी सेना ने आपस में बांटकर खाया। बस यहीं इसकी उत्पत्ति हो गई और जिसको नाम बाटी दिया गया।
इसके बाद से जंग के मैदान खाया जाने वाला बाटी सबसे पसन्दीदा भोजन बन गया। अब सैनिक प्रतिदिन सुबह को आटे की लोइयां बनाकर रेत में दबाकर चले जाते व शाम को वापस उनको अचार, चटनी व रणभूमि में मौजूद ऊंटनी व बकरी के दूध से तैयार दही के साथ खा लेते। इस भोजन से सैनिकों को ऊर्जा भी भरपूर मिलती व समय की भी बचत होती थी। इसके बाद धीरे-धीरे यह पकवान पूरे राजस्थान में लोकप्रिय हो गया। यह विशेष मौकों पर भी बनना शुरू हो गया। मुगल बादशाह जलालूद्दीन मोहम्मद अकबर के राजस्थान में आगमन की वजह से बाटी मुगल साम्राज्य तक भी पहुंचने में सफल हो गई। इसके बाद मुगल खानसामे बाटी को उबालकर तैयार करने लगे व इसको बाफला नाम दिया। बाद में यह पकवान पूर देश में प्रसिद्ध हो गया। आज भी इसको देश में अलग-अलग तरीकों से तैयार किया जाता है।
अब दाल की बात की जाए तो दक्षिण के कई व्यापारी मेवाड़ में रहने के लिए आ गए। तो इन्हीं व्यापारियों ने दाल के साथ चूरकर बाटी को खाना प्ररारंभ कर दिया। यह स्वाद भी प्रसिद्ध हो गया। इसके बाद से आज भी दाल और बाटी का गठजोड़ बना हुआ है। उस दौर में पंचमेर दाल खाई जाती थी। यह 5 तरह की दाल मूग, चना, उड़द, तुअर व मसूर से मिलकर तैयार होती थी। जिसमें सरसो के तेल या देसी घी का तेज मसालों के साथ तड़का लगाया जाता था। अब चूरमा का नंबर आता है तो यह मीठा पकवान अनजाने में ही तैयार हो गया।
हुआ ये कि एक मौके पर मेवाड़ के गुहिलोत कबीले के रसोइया के हाथों से छूटकर बाटियां गन्ने के रस में जा गिरीं। जिसकी वजह से बाटी नरम हो गई, साथ ही और भी ज्यादा स्वादिष्ट हो गई। फिर इसको गन्ने के रस में डुबोकर बनाया जाना शुरू हो गया। जिसमें इलायची, मिश्री के साथ ढेर सारा घी भी मिलाया जाने लगा। बाटी को चूरकर तैयार किए जाने की वजह से इसका नाम चूरमा पड़ गया।
दाल-बाटी जितनी राजस्थान में, उतना ही उज्जैन-मालवा के क्षेत्रों में भी पसन्द की जाती है। मालवा के दाल-बाटी चूरमा लड्डू व हरी चटनी के साथ खाए जाते हैं। अगर कोई शख्स मालवा पहुंचकर लड्डू और चूरमा ना खाए तो समझों उसकी मालवा-यात्रा अधूरी ही रह गई।
मालवा के दाल-बाटी व दाल-बाफले इतने लोकप्रिय हैं कि इन्हें खाने के लिए लोग देश के विभिन्न हिस्सों के साथ ही विदेश से भी आते हैं। दाल-बाफले के खाने के बाद व्यक्ति पूरी तरह से तृप्त हो जाता है। साथ ही पानी पीने के बाद नींद के आगोश में चला जाता है।
बाटी चोखा की उत्पति भले ही राजस्थान का रणक्षेत्र बना। पर वर्तमान में बाटी चोखा और पूर्वांचल दोनों एक दूजे पर्याय बन चुके हैं। हालत ये हैं कि बाटी चोखा पूर्वी भारत खासकर पूर्वांचल और बिहार (Bihar) में एक शाही व्यंजन माना जाने लगा है। इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इससे ही लगाया जा सकता है कि बाटी चोखा पूर्वांचल के तमाम प्रमुख बाजारों, रेलवे स्टेशन, कोर्ट कचहरी, सरकारी कर्यालय, विद्यालय महाविद्यालय आदि के निकट ठेला खोमचा और फुटपाथ की दुकानों पर भी नजर आता है। इसके अलावा यहां बड़े-बड़े रेस्टोरेंट्स भी बाटी चोखा के नाम से खुलने शुरू हो गए हैं। विशेष तौर पर पूर्वांचल में लखनऊ, प्रयागराज, वाराणसी और गोरखपुर जैसे बड़े महानगरों में बाटी चोखा की एक रेस्टोरेंट श्रृंखला दिखाई देने लगी है। बाटी चोखा के बिना पूर्वांचल में जनसामान्य से लेकर गणमान्य तक कहीं कोई पार्टी, दावत और महाभोज पूर्ण नहीं हो सकता है।
विशेष तौर पर पूर्वांचल में बलिया, गाजीपुर, देवरिया, आजमगढ़, गोरखपुर, मऊ, जौनपुर, वाराणसी, सोनभद्र मिर्जापुर से होते हुए बिहार तक दाल-बाटी व चोखा की परम्परा विद्यमान है। पूर्वांचली बाटी के अंदर मसालेदार सत्तू भरा होता है। जिसको लिट्टी पुकारा जाता है। लिट्टी को उबलते हुए पानी में पकाने के बाद घी में छानने की भी परम्परा है। जिसको घाठी भी कहा जाता है। घाठी का चलन गोरखपुर अंचल में है। स्थिति ये है कि बाटी चोखा पूर्वांचल में चटनी, अचार, दाल चावल, देसी घी, दही, खीर जैसे एक महा व्यंजन का स्वरूप धारण कर चुका है।