कैसे बनी रहे पक्षियों की चहचहाहट

प्राकृतिक सौंदर्य, पेड़-पौधों की हरियाली के साथ पक्षियों के मधुर कलरव से भी बढ़ता है। लेकिन वो पेड़, जिन पर पक्षियों का बसेरा होता है, वे बचेंगे नहीं, पर्यावरण-प्रदूषण इनके लिए जानलेवा हो जाएगा तो प्रकृति का हमें वो मनोहारी सान्निध्य कैसे मिलेगा, जो हमें मानसिक तनावों से दूर रखता है, प्रफुल्लित करता है। सवाल यह है हम पक्षियों की चहचहाहट कैसे बचाए रखें?;

Update: 2020-10-15 14:12 GMT

राजेश के पिता आए दिन सुबह-सुबह चिड़ियों का कलरव सुनकर चौंक जाते हैं। उन्हें लगता है, शायद बगल वाले कमरे की खिड़की में बहुत सारी चिड़ियां आकर बैठ गई हैं, वो अपनी आवाजों से घर वालों को जगा रही हैं, लेकिन जब वह दौड़कर कमरे की खिड़की के पास जाते हैं तो वहां बिल्कुल सन्नाटा होता है। दूर तक कहीं एक चिड़िया भी नहीं दिखतीं। तब उन्हें एक झटके में याद आता है कि अरे, ये तो उनके बेटे के अलार्म की आवाज है, जो सुबह जल्दी जगने के लिए लगा तो लेता है, लेकिन आमतौर पर उठता नहीं। इस कारण रह-रहकर उन्हें सुबह-सुबह चिड़ियों का कलरव सुनने को मिलता है।

लगातार कम हो रही है चिड़ियों की चहचहाहट : यह अजीब मजाक है। जंगलों में, खेतों में, बस्तियों में लगातार चिड़ियों की संख्या कम हो रही है। लेकिन मोबाइल फोन में, चिड़ियों की आवाजों की कॉलर ट्यून बढ़ती जा रही हैं। दिन- रात पर्यावरणविदों की तमाम चिंताओं के बाद भी दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं हो रहा, जिससे चिड़ियों की दिनों-दिन हो रही कमी थमे। हालांकि पिछले कुछ महीनों से पूरी दुनिया के कोरोना की चपेट में होने के कारण जरूर तमाम तरह के प्रदूषणों में कुछ राहत मिली है, इससे उन तमाम जीव प्रजातियों को भी थोड़ी सांस में सांस आई है, जो लगातार खत्म होने की तरफ बढ़ रही हैं। लेकिन जिस तरह से पिछले कुछ दशकों में चिड़ियों की संख्या में पूरी दुनिया में कमी आई है, उससे यह आशंका घर करने लगी है, कहीं ऐसा न हो भविष्य की पीढ़ियां चिड़ियों की आवाजें बस मोबाइल और कंप्यूटर में ही सुनें।

हमारी जीवनशैली है प्रकृति के खिलाफ : हमारी मौजूदा जीवनशैली एक हद तक प्रकृति के खिलाफ है। हमारा उपभोग, हमारा भोग-विलास, पेड़-पौधों को ही नहीं, पशु-पक्षियों के लिए भी खतरा बन गया है। पेड़ लगातार कम हो रहे हैं। वो प्राकृतिक पेड़, जो अनगिनत पक्षियों का बसेरा हुआ करते थे, इंसान के लिए भी फायदेमंद होते थे, उनकी संख्या लगातार घट रही है। पक्षियों के जान की दुश्मन सिर्फ हमारी जीवनशैली ही नहीं है बल्कि ज्यादा से ज्यादा कृषि उत्पादन के लिए रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का खेती में जो अंधा-धुंध इस्तेमाल हो रहा है, उससे भी चिड़ियों की जिदंगी को खतरा पैदा हो गया है।

खत्म हो रहे हैं पक्षियों के बसेरे: पर्यावरणविदों के मुताबिक जब कीटाणुनाशक युक्त बीज पक्षी खाते हैं, तो उनकी मौत हो जाती है। दूसरी तरफ अत्यधिक निर्माण के कारण सिर्फ शहरों में ही नहीं, गांवों में भी बड़े पैमाने पर बड़े पेड़ काट दिए जाते हैं। ये वो पेड़ हैं, जो गांवों में तालाबों के किनारे होते थे, जिनमें तमाम तरह के पक्षी अपना घोंसला बनाते थे, तालाब का पानी पीते थे और घने छायादार पेड़ के फलों को खाकर जीवित रहते थे। अब ये सब लगातार अगर बिल्कुल खत्म नहीं तो दुर्लभ होता जा रहा है, जिससे पक्षियों की संख्या लगातार घट रही है। हाल के सालों में पंजाब और हरियाणा के किसानों के देखा-देखी देश के ज्यादातर हिस्सों में भी किसान अपने खेतों के खर-पतवार को खत्म करने के लिए शॉर्टकट का रास्ता अपनाते हुए, इसमें आग लगाने लगे हैं। खेतों में आग लगाने से उन तमाम पक्षियों की जिंदगी खतरे में पड़ गई है, जो पेड़ों की फुनगियों में नहीं बल्कि खेतों की मेड़ों, खेतों की झाड़ झंकार और मिट्टी में रहती थीं मसलन तीतर, बटेर, टिटहरी, बुलबुल और पैडीफील्ड।

मोबाइल टावर हैं बहुत बड़ा खतरा : हमारी रोजमर्रा की गतिशील जिंदगी का महत्वपूर्ण उपकरण बन गए मोबाइल की वजह से भी हजारों किस्म की चिड़ियों की प्रजातियां नष्ट हो रही हैं। हालांकि यह चिंता बहुत पहले ही आ गई थी, लेकिन कॉरपोरेट जगत, अपने रसूख की बदौलत इस निष्कर्ष को लगातार गलत बताने की कोशिश करता रहा और अब तो वह पक्षियों के हमदर्दों से भी यह कहलाने में सक्षम हो गया है कि पक्षियों के लिए मोबाइल समस्या नहीं हैं। लेकिन विभिन्न अध्ययन बताते हैं कि एक दिन दुनिया की तमाम छोटी चिड़ियां सिर्फ तस्वीरों में ही बचेंगी, क्योंकि मोबाइल टावर से निकलने वाली तरंगें, विशेषकर छोटी चिड़ियों के लिए बड़ी समस्या हैं। माना जा रहा है कि मोबाइल की वजह से ही बड़े शहरों में छोटी गौरैया दिखना अब ईद का चांद हो गया है। साल 2009-2010 में केरल के डॉ. पट्टाझी ने मोबाइल टावरों का चिड़ियों के जीवन में क्या असर पड़ता है, इसका विस्तृत अध्ययन किया था और साबित किया था कि बढ़ते मोबाइल टावर और एंटीना वास्तव में चिड़ियों की जान की दुश्मन हैं। इसकी वजह यह भी है कि मोबाइल हर घर तक ही नहीं बल्कि खेत, जंगल, समुद्र, आसमान हर जगह पहुंच गया है।

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हम सच में हों संवेदनशील : आज के इस दौर ने लोगों में संवेदनशीलता तो बढ़ाई है, लेकिन वे इस संवेदनशीलता को अपने निजी जीवन और व्यवहार में नहीं उतार रहे। इसका असर ये हो रहा है कि हम पर्यावरण और अपने तमाम सहजीवियों के बारे में आंसू तो खूब बहाते हैं, बड़े- बड़े भाषण भी खूब देते हैं लेकिन सचमुच में उन्हें बचाने के लिए कुछ नहीं करते।

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