राजनीति में सबसे बड़े फेलियर हैं सपा प्रमुख अखिलेश यादव, जानें पूरा कच्चा-चिट्ठा
राजनीति में अनुभव सबसे महत्वपूर्ण होता है। तजुर्बे की कमी से ही अखिलेश गच्चा खा बैठे और चाचा शिवपाल से विवाद कर बैठे। घर की चार दिवारी में हुआ आपसी मनमुटाव बाहर मंच पर आ गया। पार्टी के ऊपर इसका बुरा प्रभाव पड़ा और कार्यकर्ता भी दो भागों में बंट गए।;
आखिरकार मायावती ने लोकसभा चुनाव में अपेक्षाओं के विपरीत परिणाम आने पर गठबंधन से किनारा कर लिया। मायावती के निकलने के साथ ही गठबंधन टूट गया। पर अपने कार्यकर्ताओं का दिल रखने के लिए अखिलेश यादव ने भी करीब 1 घंटे के बाद प्रदेश में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला कर दिया।
अखिलेश यादव का राजनीति में प्रवेश एकबारगी हुआ था। 2010-11 में सूबे में माया-मुलायम ही थे। प्रदेश में सत्ता हर चुनाव बाद एक दूसरे को ट्रांसफर हो जा रही थी। मुलायम सिंह को लगा कि अब वह सियासी मैदान पर दौड़ दौड़कर वोट नहीं बटोर पाएंगे तो उन्होंने अपने पुत्र अखिलेश को राजनीति के मैदान में उतारा।
अखिलेश राजनीति में उतरे तो प्रदेश के सिंहासन में मायावती बैठी थी। पूर्व परिणामों के आधार पर कहा जा सकता था कि इसबार फिर से सत्ता पलटेगी। 2012 के चुनावी साल में अखिलेश यादव राजनीति में सक्रिय हुए। सपा ने अपने घोषणा पत्र से एक अचूक तीर निकाला और हवा में उछाल दिया। जो सीधा निशाने पर लगा।
इंटरमीडिएट पास छात्रों को लैपटॉप व 10वीं पास बच्चों को टैबलेट की घोषणा सपा को पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में ले आई। पार्टी को 403 विधानसभा सीटों में 224 सीटे मिली। मुख्यमंत्री के पद को लेकर सपा के अन्दर रस्साकसी शुरू हुई। पर फैसला मुलायम सिंह को लेना था जिन्होंने अपने बेटे टीपू को अपना उत्तराधिकारी बताते हुए सत्ता पर बैठा दिया।
मुलायम सिंह के भाई शिवपाल यादव ने सिर झुकाकर बड़े भाई के फैसले का सम्मान किया और पार्टी के हितों के लिए लगे रहे। लोग नाराज होते, पार्टी छोड़ते, पार्टी में आते, हर जगह शिवपाल नजर आते। पार्टी को मजबूत करने के लिए जितना कुछ किया जा सकता था वो करते रहे।
राजनीति में अनुभव सबसे महत्वपूर्ण होता है। तजुर्बे की कमी से ही अखिलेश गच्चा खा बैठे और चाचा शिवपाल से विवाद कर लिया। घर की चार दिवारी में हुआ आपसी मनमुटाव बाहर मंच पर आ गया। पार्टी के ऊपर इसका बुरा प्रभाव पड़ा और कार्यकर्ता भी दो भागों में बंट गए।
अखिलेश को प्रदेश का मुख्यमंत्री हुए दो साल हुआ था, प्रदेश में लोकसभा चुनाव हुआ। अखिलेश यादव को उम्मीद थी कि पार्टी 2012 की तरह अपना प्रदर्शन दोहराएगी पर नतीजा एकदम उलट आया। परिवार के पांच सदस्यों के अलावा कोई भी इस समाजवादी पार्टी में जीत हासिल नहीं कर सका।
इस नतीजे के बाद पार्टी में मंथन का दौर चला। हार की जिम्मेदारी लेने वाला कोई आगे नहीं आया। चुनाव में हार जीत लगी रहती है सोचकर ही सपा के पार्टी हितैषी नेता सत्ता का सुख लेते रहे। अखिलेश और शिवपाल के बीच इस बीच तल्खी और बढ़ गई थी।
2017 में प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए। अखिलेश का विकासवादी चेहरा औंधे मुंह गिरा। पिछले चुनाव में 224 सीटे जीतकर सत्ता में आने वाली सपा इसबार चार गुना खराब प्रदर्शन करते हुए 47 सीटों पर सिमट गई। सत्ता की चाभी अखिलेश के हाथ से निकल गई।
अखिलेश यादव ने इसके बाद भी अपनी रणनीति बदलना उचित नहीं समझा और ट्वीटर फेसबुक और टीवी चैनलों के इंटरव्यू के जरिए ही राजनीति करते रहे। एक सच यह भी है कि अखिलेश जी कभी जमीन पर उतरकर संघर्ष करते नहीं दिखे। अखिलेश के आसपास वो नेता हैं जिनकी जमीनी पकड़ जीरो है। जो अखिलेश की तरह की बिना संघर्ष किए राजनीति में "नौकरी" करने आए हैं।
2019 का लोकसभा चुनाव अखिलेश को राजनीति में पूरी तरह फेल कर देता है। मायावती की इन बातों पर अखिलेश को सोचने के लिए रुकना पड़ेगा, उन्होंने कहा जो अपनी पत्नी डिम्पल यादव और भाई धर्मेंद्र यादव को नहीं जिता पाया उनसे गठबंधन करने का क्या फायदा।
अपने दम पर एक भी चुनाव न जिता पाने वाले अखिलेश यादव वर्तमान राजनीति में एकदम फिट नहीं बैठ रहे। यादव, मुस्लिम वोटरों पर अपना अधिकार समझने वाली समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव को ठहरकर सोचने की जरूरत है। कुछ कड़े फैसले लेने की जरूरत है। 'अपने लोग' को पराए लोग की तरह किनारे करना होगा। वरना आगामी उपचुनाव क्या, 2022 का विधानसभा चुनाव भी दर्शक बनकर लड़ना होगा।
और पढ़े: Haryana News | Chhattisgarh News | MP News | Aaj Ka Rashifal | Jokes | Haryana Video News | Haryana News App