कश्मीर की कहानी : पाकिस्तान के पाले पोसे आतंकियों पर मोदी सरकार का सबसे बड़ा वार
जम्मू कश्मीर से धारा 370 और धारा 35 A खत्म होने से आतंकियों की कमर तो टूटेगी ही साथ में पाकिस्तान को भी सबक मिल जाएगा क्योंकि पाकिस्तान अपने पाले पोसे आतंकियों को कश्मीर में घुसपैठ कराकर अशांति और उपद्रव फैलाने का प्रयास करता रहता है, राजनितिक विशेषज्ञ निरंकार सिंह इस पर विस्तार से जानकारी दे रहे हैं।;
मोदी सरकार ने कश्मीर को लेकर चुनाव में लोगों से जो वादा किया था उसे आज पूरा कर दिया, गृह मंत्री अमित शाह ने धारा 370 और धारा 35 A को लेकर जो संकल्प पत्र जारी किया उसे राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की मजूरी मिल गई। मोदी सरकार का यह निर्णय आतंकियों के लिए सबसे बड़ा प्रहार साबित होगा, क्योंकि पाकिस्तान अपने पाले पोसे आतंकियों को कश्मीर में घुसपैठ कराकर अशांति और उपद्रव फैलाने का प्रयास करता रहता है। वह भारत से सीधे नहीं बल्कि अप्रत्यक्ष छद्म युद्ध लड़ रहा है। अब तो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने यह बात मान ली है कि पाकिस्तान में 30 से 40 हजार आतंकी हैं जो जम्मू कश्मीर और अफगानिस्तान में लड़ते रहते हैं।
भारत से तीन जंगों में हारने और दो टुकड़ों में बंटने के बावजूद पाकिस्तान अपनी करतूतों से बाज नहीं आ रहा है। आज उसकी माली हालत खराब हो चुकी है। वह अपने हाथ में कटोरा लेकर भीख मांग रहा है। कुछ गिने-चुने मुल्कों को छोड़ दिया जाए तो वह दुनिया में लगभग अलग-थलग हो गया है, लेकिन उसकी फितरत ऐसी है कि वह मानता ही नहीं है। देश के बंटवारे के ही बाद पाकिस्तान ने कबाइलियों को अपनी सेना के साथ लेकर जम्मू कश्मीर पर हमला कर दिया था।
भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इस मामले को लेकर संयुक्त राष्ट्र चले गए। दोनों देशों के बीच युद्ध विराम की घोषणा होने तक पाकिस्तान ने जम्मू कश्मीर के एक तिहाई हिस्से पर कब्जा कर लिया। इस जमीन का कुछ हिस्सा बाद में उसने चीन को दे दिया जो अक्साई चीन के नाम से जाना जाता है। अपने कब्जे वाले कश्मीर को वह आजाद कश्मीर कहता है और तभी से वह कश्मीर को विवाद का मुद्दा बनाए हुए है।
यदि हम इतिहास पर नजर डालें तो शुरुआती हिंदू और बौद्ध शासनकालों के दौरान जम्मू एवं कश्मीर भारतीय राज-व्यवस्था और साम्राज्य का एक अभिन्न अंग था। सबसे हालिया मुगलकाल में जम्मू एवं कश्मीर का पश्चिमी भाग, जो अब पाकिस्तान के न्याय क्षेत्र में है, अधिकतर अफगान राजाओं और अप्रत्यक्ष रूप से पर्सियन साम्राज्य के प्रतिनिधियों द्वारा नियंत्रित था। जम्मू एवं कश्मीर के पूर्वी हिस्से, जो अब भारत के साथ हैं, मुगलों के अधीन थे।
देश के विभाजन के समय जम्मू एवं कश्मीर के हिंदू डोगरा राजा हरिसिंह का शुरुआती लक्ष्य कश्मीर को एक स्वतंत्र राज्य बनाना था। नेशनल काफ्रेंस के शेख अब्दुल्ला और मुस्लिम लीग के नेताओ ने भी इसका विरोध किया। सन्ा 1947 में ब्रिटिश ससंद में पारित इंडिपेंडेंट एक्ट के प्रावधानों के तहत हरिसिंह भारत में शामिल हुए। भारतीय नेताओं ने ब्रिटिश सरकार और पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना दोनों को यह सुझाव दिया था कि भारतीय रियासतों को अपने नागरिकों की इच्छा के अनुसार अपना भविष्य तय करना चाहिए, न कि उनके राजसी और सामंती शासकों की आवश्यकताओं और प्रवृत्तियों के अनुसार।
ब्रिटिश अधिकारियों और जिन्ना-दोनों ने इस सुझाव को मानने से इनकार कर दिया। उन्होंने जोर दिया कि इन रियासतों के राजा ही यह तय करेंगे कि उनका भविष्य किसके साथ होगा। जिन्ना को उम्मीद थी कि भोपाल, हैदराबाद और जूनागढ़ रियासतों के शासक पाकिस्तान में शामिल होना पसंद करेंगे। जिन्ना ने यह भी उम्मीद की थी कि कश्मीर रियासत, खासकर घाटी में मुस्लिम बहुल जनसंख्या के कारण, महाराजा हरिसिंह के खिलाफ एकजुट हो जाएगी और कश्मीर एक स्वतंत्र सत्ता के रूप में उभरेगी या पाकिस्तान में शामिल हो जाएगी।
जब जिन्ना की उम्मीदें सच नहीं हुई तो पाकिस्तान ने अक्टूबर 1947 में कबाइली आक्रमण का सहारा लिया। सन्ा 1948 में यह सोचकर नेहरू संयुक्त राष्ट्र में गए कि पाक द्वारा कब्जे में कर ली गई जमीन को खाली करवाने में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय मदद करेगा। भारत ने कुछ विशिष्ट अवस्थाओं में जनमत-संग्रह कराने की सहमति दी, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण था कि पाकिस्तान अपने सभी सैनिक हटा लेगा और जम्मू एवं कश्मीर की रियासत के पूरे क्षेत्र को खाली कर देगा। पाकिस्तान ने ऐसा करने से इनकार कर दिया और अब भी इनकार करता है।
इस पृष्ठभूमि के विपरीत भारत ने जम्मू एवं कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं शुरू की और उसी समय इस विवाद के समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र या किसी अन्य बाहरी पक्ष की भूमिका को अस्वीकृत कर दिया। भारत ने पाकिस्तान द्वारा कश्मीर मुद्दे को 'विभाजन का अपूर्ण कार्य' कहकर पेश किए जाने पर बार-बार आपत्ति जताई है। विध्वंसक कारवाइयों और अंतर्राष्ट्रीय दबाव द्वारा कश्मीर को प्राप्त करने में सफल न रहने पर पाकिस्तान ने इसके लिए भारत के साथ तीन युद्ध करके सैन्य उपायों द्वारा प्राप्त करने का प्रयास किया।
भारत के लिए भी यह केन्द्रीय मुद्दा है, क्योंकि भारत अपने क्षेत्र के किसी भी भाग और अपने किसी भी नागरिक को धार्मिक सम्बद्धता के आधार पर भारतीय गणतंत्र से अलग होने की अनुमति नहीं दे सकता। ऐसी कोई घटना उन मूल तत्वों को नुकसान पहुंचाएगी, जिन पर स्वतंत्र भारत अस्तित्व में आया था। वे तत्व हैं बहुलवादी, बहुधार्मिक और बहुभाषायी राष्ट्रीय पहचान। सन्ा 1989 के अन्त में पाकिस्तान समर्थित हिंसा के साथ आतंकवाद और अलगाववाद में गुणात्मक वृद्धि सन् 1991 के दौरान अपने चरम पर थी।
इस अलगाव की विष बेल को कांग्रेस और यूपीए सरकार की गलत नीतियों के कारण जड़ जमाने का मौका मिला। जम्मू कश्मीर के अलगाववादी नेताओं को जिस तरह की सुरक्षा और सहायता कांग्रेस और यूपीए सरकारों के कार्यकाल में मिली हुई थी, उससे अलगाववादियों के हौसले बढ़ते गए। इस बात से भी इन्ाकार नहीं किया जा सकता है कि कश्मीर में आतंकियों को स्थानीय लोगों का भी समर्थन प्राप्त है।
यह कड़वा सच है कि कांग्रेस और यूपीए सरकारों की कुछ दोषपूर्ण नीतियां रही हैं, जिसके कारण कश्मीरी आतंकियों के प्रति स्थानीय लोगों का समर्थन बढ़ा। एक और कड़वी सच्चाई यह भी है कि पाकिस्तान इन कश्मीरी आतंकियों को प्रशिक्षण और वित्तीय सहायता उपलब्ध करा रहा है। दरअसल पाकिस्तान भारत को घाव देकर लहूलुहान करना चाहता है। इस बात को स्वीकार करते हुए कि भारत को कश्मीर समस्या से निपटने के लिए दोतरफा दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
कश्मीरी आतंकियों के बढ़ते कदम को रोकने और कश्मीरी समूहों को वार्ता टेबल पर लाने का कोई भी प्रयास तब तक सफल नहीं हो सकता, जब तक कि सीमा पार से उन्हें मिलने वाले हर प्रकार की सहायता और समर्थन के रास्ते पूरी तरह बन्द न कर दिए जाएं। यह संतोष की बात है कि गृहमंत्री अमित शाह ने जम्मू कश्मीर की समस्या को समझा है और उन्होंने अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा और सहायता बंद कर दी। इससे अब कश्मीर के हालात में सुधार हो रहा है, लेकिन पीडीपी और नेशनल कान्फ्रेंस के कई नेता अमन बहाली में बाधा डाल रहे हैं इसलिए सरकार को उनकी गतिविधियों पर नजर रखनी होगी।
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